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Friday, December 24, 2010

मैं गोपीचंद हूं

मैं गोपीचंद हूं। खेलमंत्री एम एस गिल से मुलाकात करते वक्‍त पुलैला गोपीचंद को कुछ इसी तरह अपना परिचय देना पड़ा था। यह वाकया दो साल पुराना है जब गोपीचंद अपनी शिष्‍या और स्‍टार शटलर साइना नेहवाल के साथ खेल मंत्री एम एस गिल से मुलाकात करने पहुंचे थे। खेलमंत्री के सामने पहचान संकट होने के बावजूद गोपीचंद पर इसका जरा सा भी असर नहीं दिखा था। दो साल बाद अब एम एस गिल का बतौर खेलमंत्री कार्यकाल सवालों के घेरे में है तो वहीं साइना दुनिया की नंबर वन खिलाड़ी बनने की दहलीज पर खड़ी है। चीन की दीवार जिसमें साइना ने पहले सेंध लगाई थी अब धराशायी हो चुकी है। इन सबके बीच नहीं बदला तो गोपीचंद का अंदाज। वह अब भी चिरपरिचित मुस्‍कान लिए शांत, सहज और सरल है। चीन की दीवार को लांघती अपनी शिष्‍या की सफलता में वह किसी शोरशराबे के बगैर परछाई की तरह हर पल मौजूद है।

साइना की सफलता के पीछे गोपीचंद के समर्पण को देख मोहम्‍मद अली का कथन याद आता है कि कोई विजेता उस समय विजेता नहीं बनते जब वे किसी प्रतियोगिता को जीतते हैं। विजेता तो वे उन घंटों, सप्‍ताहों, महीनों और वर्षों में बनते हैं जब वे इसकी तैयारी कर रहे होते हैं। साइना को आज दुनिया विजेता के रूप में देख रही है, इसके पीछे खुद साइना की मेहनत के साथ साथ गोपीचंद का समर्पण और बरसों की मेहनत छुपी हुई है। साइना की सफलता गोपीचंद के बगैर अधूरी है।


पुलैला गोपीचंद साइना की सफलताओं की अनकही गाथा है। हर हाल में संघर्ष, आखिर तक हार न मानने और जीत की एक अटूट जिद कुछ ऐसे पैगाम है जिनके चलते साइना सहित भारतीय बैडमिंटन आज सफलता के नए मुकाम पर है। ये बात अलहदा है कि एक खिलाड़ी की जीत में उसके हुनर और दमखम का खासा जोर रहता है लेकिन इसके अलावा उसे हर हाल में जीतने और हारी बाजी को जीत में बदलने के कुछ ऐसे गुरुमंत्र होते हैं जो एक कोच ही सीखा सकता है। गोपीचंद ने अपने , पके बच्चों को यही सिखाया है। सही मायनों में गोपीचंद एक कुशल शिल्पी हैं जिनकी कलाकृति साइना सहित भारतीय बैडमिंटन में झलकती है।

गोपीचंद के उदय के पहले भारतीय बैडमिंटन का जिक्र प्रकाश पादुकोण से शुरू होकर उन्‍हीं पर खत्‍म हो जाता था। प्रकाश पादुकोण ने भारतीय बैडमिंटन को पहचान दी तो पुलैला ने इस खेल में भारत के अटूट संघर्ष की कहानी लिखी है। प्रकाश पादुकोण और गोपीचंद के ऑल इंग्‍लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप जीतने में अंतर शायद ये रहा कि जहां प्रकाश पादुकोण की कहानी उनसे शुरु होकर वहीं तक सिमट कर रह गई वहीं गोपींचद ने इस जीत को निरंतरता में डालने की आदत डाली।


पुलैला ने न केवल अपनी सफलता को खुद तक सीमित रखा बल्कि उसे एक मिसाल के तौर पर आने वाली पीढियों के सामने रखा और शायद यही कारण है कि आज बैडमिंटन में भारत का एक नाम है। अफसोस की बात ये है कि भारत के खेल संघ यहां तक कि खेल मंत्री भी उनकी सफलताओं से गौरवान्वित नहीं होते, क्योंकि अगर होते तो शायद पुलैला को यूं अपना परिचय देने की जरूरत न होती। ये वाकया दो साल पुराना है इस घटना के बाद आज भारतीय बैडमिंटन एक नए मुकाम पर है। साइना नेहवाल एंड कंपनी दुनिया में अपनी सफलताओं का परचम लहरा रही हैं तो उनके साथी डबल्स और मिक्सड डबल्स में धमाका किए हुए हैं। इन बातों से इतर गोपीचंद अपना काम जारी रखे हैं।

खुशी की बात है कि भारत सरकार ने अपने इस स्टार खिलाड़ी की सफलता के महत्व को पहचाना और उसे सम्मानों से नवाजा है। गोपीचंद एकमात्र ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें अर्जुन अवार्ड, द्रोणाचार्य अवार्ड, राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार मिला है। सम्मानों की लंबी फेहरिस्त के बीच पुलैला ने अपने व्यकितगत आदर्शों को बनाए रखा। मिडिल क्‍लास से संबंध रखने वाले पुलैला ने कोला जैसी कंपनी का विज्ञापन ठुकरा दिया क्योंकि ये पेय उनके मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। उन्‍हें ऐतराज था कि जिस शीतल पेय का वह सेवन नहीं करते उसका प्रचार प्रसार वो कैसे कर सकते हैं। इतना ही नहीं हैदराबाद में अपनी एकेडमी के लिए जब धन की कमी आड़े आई तो उन्‍होंने अपना घर गिरवी रखने से भी परहेज नहीं किया। विपरीत परिस्थितियों में सफलता हासिल करने वाले गोपीचंद को फाइटर प्लेयर और एक आदर्श कोच के तौर पर सलाम।

Thursday, November 25, 2010

रेहान का मिस्‍टर डिपेंडेबल


फना फिल्‍म में आमिर खान और उनके बेटे रेहान के बीच एक बेह‍द छोटा लेकिन बेहद रोचक संवाद है। यह संवाद राहुल द्रविड को लेकर है। आतंकी बने आमिर अपने बेटे रेहान से बड़े ही मासूमियत भरे अंदाज में कहते है कि वह राहुल द्रविड की तरह क्रिकेट नहीं खेल सकते है। आमिर कहते है डिपेंडेबल नहीं है और राहुल द्रविड की तरह उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। फिल्‍म में पिता पुत्र के बीच यह कुछ पलों का संवाद था। रेहान को अपने राहुल द्रविड़ पर भरोसा है। द्रविड ने रील लाइफ के रेहान और रियल लाइफ के करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की नजर में इस भरोसे को एक बार फिर कायम रखा है। राहुल द्रविड ने नागपुर में जता दिया कि क्‍यो उन्‍हें मिस्टर डिपेंडेबल कहां जाता है।

आमिर खान की तरह राहुल द्रविड को मिस्‍टर डिपेंडेबल के साथ मिस्‍टर परफेक्‍ट कहां जाता है। उन्‍हें यह दर्जा शास्‍त्रीय शैली की क्रिकेट खेलने की वजह से हासिल हुआ है। हालांकि वह आमिर खान की तरह खुशकिस्‍मत नहीं है कि जो अपनी स्क्रिप्‍ट से लेकर सह कलाकार और निर्देशक तक चुनने के लिए स्‍वतंत्र है। द्रविड के हाथों में न तो विकेट का मिजाज है और नहीं विपक्षी गेंदबाजों के मिजाज को नियंत्रण करने का हथियार। मौसम के बदलते रूख से भी उन्‍हें दो चार होना पड़ता है। इसके बावजूद वह भरोसेमंद बने हुए है। नागपुर में एक वक्‍त लग रहा था कि भारत एक बार फिर बड़ा स्‍कोर खड़ा करने में नाकाम रहेंगा। ऐसे आड़े वक्‍त में द्रविड विकेट पर अंगद के पांव की तरह जम गए। सचिन, लक्ष्‍मण और रैना के मझधार में साथ छोड़ने के बाद भी उनका धैर्य नहीं डगमाया।

नागपुर राहुल द्रविड का ससुराल होने के साथ साथ संतरों की नगरी भी है। नागपुर पहुंचने के पहले द्रविड का बल्‍लेबाजी फार्म भी संतरों की तरह खट्टा मीठा हो रहा था। तकनीक में कहीं कोई दिक्‍कत नहीं थी। विपक्षी गेंदबाजों की गेंद को समझने में वह गच्‍चा खा रहे थे ऐसा भी कुछ नहीं था। बस वह अच्‍छी शुरूआत को बड़ी पारी में बदल नहीं पा रहे थे। नागपुर में धैर्य, जिद और जज्‍बे के साथ वह मैदान में उतरे और फिर एक बड़ी पारी खेलकर ही लौटे। फार्म में वापसी के लिए इससे बेहतर पारी हो भी नहीं सकती थी।


भारतीय टीम के फेब फोर में लक्ष्‍मण के बाद द्रविड ही ऐसे खिलाड़ी है जिन्‍हें वह श्रेय नहीं मिल पाया जिसके वह हकदार रहे है। भारतीय टीम के जीत की बुलंदियों से छूने के सफर में वह हमेशा नींव का पत्‍थर बने रहे। 21 नवंबर की शाम को भी जब द्रविड 67 रन बनाकर नाबाद थे तो किसी का ध्‍यान उन पर नहीं था। हर किसी की जुबां पर केवल और केवल सचिन तेंदुलकर के 50 वें शतक की दहलीज पर खड़े होने की चर्चा थी। 22 नवंबर को सचिन दिन की नौ गेंदों के बाद पैवेलियन लौट गए। एक बार फिर लगा कि न्‍यूजीलैंड के आक्रमण के सामने भारत का मध्‍यक्रम लड़खड़ा जाएगा। ऐसी ही मुश्किल घड़ी में द्रविड टीम के तारनहार बनकर सामने आए। द्रविड के जमाए शतक ने केवल भारतीय पारी की नींव को मजबूती नहीं दी बल्कि इसी शतक की बदौलत भारत श्रृंखला फतह करने में भी कामयाब रहा।


द्रविड हर मुश्किल घड़ी में टीम इंडिया के काम आए। आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ ईडन गार्डन में वीवीएस लक्ष्‍मण की 281 रनों की पारी का जिक्र होता है लेकिन विकेट की दूसरी ओर जमे रहकर 180 रनों की पारी खेलने वाले द्रविड को याद नहीं किया जाता। सचिन के शतक और गांगुली की कप्‍तानी में आस्‍ट्रेलिया में मिली टेस्‍ट जीत का समय समय पर जिक्र होता है लेकिन ऐडिलेड में उनकी मैच विनिंग पारी का भूले से भी जिक्र नहीं होता।


राहुल द्रविड की फितरत ही ऐसी है कि उनके लिए बल्‍ले से निकलने वाले रन और टीम की जीत के अलावा कोई बात मायने नहीं रखती। द वॉल को न तो इस बात की कोई शिकन है कि भारतीय टीम की बल्‍लेबाजी का बोझा वह साल दर साल ढो रहे है और ना हीं इस जवाबदारी को लेकर किसी तरह का कोई घमंड। वह उस सैनिक की तरह है जो एक मोर्चा फतह करने के बाद अगला मोर्चा फतह करने के लिए निकल पड़ता है।

कुल जमा राहुल द्रविड का व्‍यक्तित्‍व टीवी पर दिखाए जाने वाले एक सीमेंट कंपनी के विज्ञापन की तरह है। यह विज्ञापन संदेश देता है कि एक खास किस्‍म के सीमेंट से बनी दीवार टूटेगी नहीं।भारतीय टीम की यह दीवार भी करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की उम्‍मीदों पर यूं ही मजबूती से हर मोर्चे पर खडी है।  विपक्षी गेंदबाजों के हर थपेड़े को झेलने के बाद द वॉल का आवरण चमकदार और विश्वसनीय बना हुआ है।

Friday, November 19, 2010

अतिथि देवो भव:

भारत सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अतिथि देवो भव: अभियान चला रही है। इसके प्रचार प्रसार का जिम्‍मा आमिर खान के कंधों पर है। बजट भी लाखों करोड़ों रूपयों का है। अब लगता है सरकार को इसके लिए अपना खजाना खाली करने की जरूरत नहीं है। टीम इंडिया के टॉप 11 खिलाड़ी मुफ्त में इसके ब्रांड एम्‍बेसेडर बन सकते है। न्‍यूजीलैंड के खिलाफ पहले दो टेस्‍ट मैचों के बाद तो कम से कम यह माना ही जा सकता है। दुनिया की नंबर वन टीम ने विदेशी मेहमानों की मेहमाननवाजी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पहले अहमदाबाद और फिर हैदराबाद में कीवी टीम के खिलाफ मुकाबले को ससम्‍मान बराबरी पर खत्‍म किया गया।

न्‍यूजीलैंड के खिलाड़ी भारत की सरजमी पर पड़ोसी मुल्‍क बांग्‍लादेश से कड़वी यादें लेकर आए थे। बांग्‍लादेश को क्रिकेट जगत में अपनी धाक अभी जमानी है। इसलिए मेहमान टीम के साथ उसका बर्ताव अच्‍छा नहीं रहा। बल्‍लेबाजों ने कीवी गेंदबाजों का तिरस्‍कार किया तो गेंदबाजों ने अतिथि बल्‍लेबाजों को ज्‍यादा वक्‍त तक क्रीज पर जमे रहने का मौका नहीं दिया। क्रिकेट के सभी फार्मेट में अतिथियों को नीचे दिखाया गया।


बांग्‍लादेश में लूटने पिटने के बाद न्‍यूजीलैंड का पड़ाव भारत में था। बराबरी का मुकाबला तो कतई नहीं कहां जा सकता था। कीवी भी कौन सी शानदार मेहमाननवाजी की उम्‍मीदें लगाकर आए थे। भारत में आने के 20 दिन बाद तस्‍वीर बिलकुल बदली हुई है। उम्‍मीदों के विपरीत कीवी टीम को अब तक के दौरे में अतुल्‍य भारत की तस्‍वीर देखने को मिली है। भारतीय बल्‍लेबाजों ने मेजबान टीम का फर्ज पूरी तरह से अदा किया। उन्‍होंने मेहमान टीम के गेंदबाजों को समय समय पर अपने विकेट उपहार में सौंपे। कभी रन जुटाए भी तो इतने नहीं की मेहमान टीम हार का खतरा महसूस करें।

बल्‍लेबाज जब मेहमाननवाजी में जुटे हो तो गेंदबाज भला कहां पीछे रहने वाले थे। श्रीसंथ, प्रज्ञान ओझा, हरभजन सिंह हर कोई खातिरदारी में जुटा नजर आया। गेंदबाजों ने इतनी दरियादिली दिखाई जितनी तो 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले में संचार मंत्री पद गंवाने वाले ए राजा भी नहीं दिखा पाए। राजा तो राजा कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स आयोजन समिति के अध्‍यक्ष सुरेश कलमाडी भी इस खातिरदारी को देख शर्मसार हो जाए। 



बांग्‍लादेश में न्‍यूजीलैंड ने इतनी मार खाई की वह भूल ही गए थे कि भारत में अतिथि को भगवान का दर्जा दिया जाता है। सदियों से यह परंपरा यहां चली आ रही है। शैलेन्‍द्र ने तो बकायदा शब्‍दों में इसे ढालते हुए लिखा था ‘ मेहमां जो हमारा होता है वो जान से प्‍यारा होता है। यानी जो भी हमारे मुल्‍क आया हमनें उसे खुशी खुशी गले लगा लिया। जिस देश में गंगा बहती है उस देश के क्रिकेटरों से न्‍यूजीलैंड को केवल मेहमानवाजी का नहीं बल्कि समानता का सबक भी सीखने को मिला। वर्ना क्रिकेट की नंबर एक टीम के सामने आठवीं रैंक की टीम की क्‍या बिसात थी। टीम इंडिया ने फिर भी विरोधी टीम को नीचा नहीं दिखने दिया। 

ऊंच नीच, छोटे बड़े का भेद किए बगैर कीवी टीम को बराबरी का दर्जा दिया। पहले टेस्‍ट में लगा कि मेजबान टीम का पलड़ा भारी हो रहा है तो दुनिया के दिग्‍गज बल्‍लेबाजों ने बड़प्‍पन दिखाते हुए आत्‍मसमर्पण कर दिया। हैदराबाद में पांचवे दिन चमत्‍कार की उम्‍मीद जगी तो गेंदबाज कहां पीछे रहने वाले थे। उन्‍होंने मैकुलम को दोहरा शतक जमाने का पूरा मौका दिया।

मेहमानवाजी में थोड़ी चूक होना लाजमी है। हरभजन सिंह जरा ज्‍यादा उत्‍साह में आते दिखें। एक शतक से उनका जी नहीं भरा। आठवे नंबर पर बल्‍लेबाजी करते हुए लगातार दो शतक जमाकर अपना नाम रिकार्ड बुक में दर्ज कराने के बाद ही उनका बल्‍ला रूका। वैसे उनकी यह गुस्‍ताखी माफी के काबिल है। बल्‍लेबाजी करते वक्‍त उन्‍होंने जो गलतियां की उसकी भरपाई गेंदबाजी विभाग में कीवी बल्‍लेबाजों के लिए खतरा नहीं बनकर कर दी। अब बताईए अतिथि देवों भव: को इससे बेहतर ब्रांड एम्‍बेसेडर क्‍या कोई और मिल सकता है। वाकई में भारत अतुल्‍य है।

Saturday, October 30, 2010

प्‍लेमेकर या ब्‍लैकमेलर


पालोमी घटक.... नाम तो सुना होगा। टेबल टेनिस में भारत की सितारा खिलाडी। हाल ही में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में एक सिल्‍वर और एक ब्रांज पदक जीता है, बंगाल की इस बाला ने।  पश्चिम बंगाल सरकार की घोषणा के मुताबिक इस उपलब्धि पर उन्‍हें एक फ्लेट मिलना चाहिए। फ्लेट तीन है और कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में बंगाल से पदक जीतने वाले खिलाडि़यों की संख्‍या ग्‍यारह, बड़ी नाइंसाफी है। ऐसे में पालोमी का नंबर नहीं लग पाया। अब फ्लेट नहीं मिलने से यह मोहतरमा इतनी नाराज है कि उन्‍होंने राष्‍ट्रीय खेलों में अपने राज्‍य की नुमाइंदगी ही नहीं करने की धमकी भी दे डाली है। 



पालोमी से किसी तरह की हमदर्दी हो इसके पहले यह जान लेना जरूरी है कि उन्‍हें फ्लेट क्‍यों नहीं मिल पाया। राज्‍य सरकार ने फ्लेट की कमी को वजह बताया है। सरकार ने बंगाल ओलंपिक एसोसिएशन की सिफारिश पर फ्लैटों का आवंटन कर दिया। वेटलिफ्टिंग में रजत पदक जीतने वाले सुखन डे, 400 मीटर रिले में कांस्‍य पदक जीतने वाले रहमतउल्‍ला और तैराकी में कांस्‍य पदक जीतने वाले प्रशांत कर्माकर को प्राथमिकता के आधार पर यह फ्लैट दिए गए है। रहमतुल्‍ला के पिता कारपेंटर है तो सुखन डे और प्रशांत की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं है। वह सबसे ज्‍यादा जरूरतमंद थे इसलिए उन्‍हें वरीयता दी गई। पालोमी खुद पेट्रोलियम बोर्ड में है और उनके मंगेतर सौम्‍यदीप राय भी पेट्रोलियम बोर्ड की सेवाओं में है। देश की नंबर एक टेबल टेनिस खिलाड़ी का यह रवैया इसलिए दिल तोड़ देने वाला है।


पालोमी सरीखा रवैया भारतीय खेल इतिहास की रवायत बन चुका है। हाल ही में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। ज्‍यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, पालोमी के पहले सानिया मिर्जा कुछ ऐसा ही रवैया दिखा चुकी है, जब उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज के अपमान के मामले में फंसने के बाद देश के लिए ही नहीं खेलने की धमकी दी थी। ट्रायल के नाम पर कुछ ऐसी ही दबंगई ओलंपिक में स्‍वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिन्‍द्रा भी दिखा चुके है। लिएंडर पेस और महेश भूपति का देश हित के से ज्‍यादा व्‍यक्तिगत हित को को अहमियत देना किसी से छुपा नहीं है। देश में क्रिकेट के इतर खेलों में यह बीमारी पुरानी है। यह घाव समय समय पर पामौली जैसी खिलाडि़यों की करतूतों की वजह से रिसता रहता है।

इस बात से किसी को इंकार नहीं है कि इन खिलाडि़यों की सफलता में सरकार का योगदान कम इनकी व्‍यक्तिगत मेहनत, समर्पण और परिवार से मिले समर्थन का अंश ज्‍यादा है। फिर भी अब तस्‍वीर बदल रही है। सरकार अब खेलों के लिए भी अपना खजाना खोल रही है। अभी कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में ही सरकार ने खिलाडि़यों पर साढ़े छह सौ करोड़ रूपयों की भारी भरकम राशि खर्च की है। मुल्‍क को अब क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में भी खिलाडि़यों की सफलता पर फ़ख्र होता है। कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में साइना नेहवाल के फायनल मुकाबले पर करोड़ों भारत वासियों की निगाहें टिकी हुई थी तो हॉकी फायनल मुकाबले के टिकिट ब्‍लैक में भी नहीं मिल रहे थे। देश बदल रहा है लेकिन खिलाडि़यों में खेल भावना और देश प्रेम की भावना की बजाए व्‍यक्तिगत फायदा महत्‍वपूर्ण बना हुआ है।


क्रिकेट को कोसने वाले दीगर खेल के खिलाडि़यों को क्रिकेटरों से जरूर सबक लेना चाहिए। क्रिकेटर कभी ऐसी धमकी नहीं देते है। वेरी वेरी स्‍पेशल लक्ष्‍मण को मर्जी नहीं होने के बावजूद ओपनिंग करनी करनी पड़ी तो राहुल द्रविड़ को कीपिंग, लेकिन इन खिलाडि़यों ने जरा सा भी विरोध नहीं किया। चुपचाप खुद को टीम की जरूरतों के मुताबिक ढाल लिया। इसकी वजह भी साफ है, यह खिलाड़ी अच्‍छी तरह से जानते है कि उनकी सितारा हैसियत तभी तक बनी हुई जब तक वह टीम इंडिया का हिस्‍सा है। यदि जरा भी ना नुकर की तो उनकी जगह लेने के लिए खिलाडि़यों की फौज तैयार है। बाकी खेलों का दुर्भाग्‍य रहा है कि उसमें भारतीय टीम में शामिल होने के लिए इतनी प्रतिस्‍पर्धा नहीं रही। इसी का फायदा यह सो कॉल्‍ड सितारा खिलाड़ी उठाते रहे है। उम्‍मीद की जाना चाहिए कि क्रिकेटरों की तरह दूसरे खेलों में भी इतनी युवा प्रतिभाएं सामने आएंगी कि कोई पालोमी इस तरह ब्‍लैकमेलिंग न कर सकें।

Monday, October 18, 2010

मौका गंवा दिया इंडिया

रील और रियल लाइफ में समानताएं ढूंढने के बाद भी नहीं मिलती है। इसके बावजूद न जाने क्‍यों हर वक्‍त हम जीवन में रील लाइफ के अक्स ढूंढने की कोशिश करते है। ऐसा ही कुछ कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में पुरूष हॉकी के फायनल मुकाबले को लेकर हुआ। चक दे इंडिया की तरह रियल लाइफ में भी नीली जर्सी वाली टीम से करिश्‍माई तरीके से वापसी कर जीत की आस जगी थी। कबीर खान की टीम शुरूआती दौर में आस्‍ट्रेलियाई से हारी थी। फिल्‍म के अंत में यही टीम आस्‍ट्रेलिया को शिकस्‍त देकर खिताब जीतती है। लेकिन, रील लाइफ की तरह जीवन में हर बात की हैप्पी एंडिंग नहीं होती है। भारतीय टीम ने बगैर लड़े ही वर्ल्‍ड चैपियंस के सामने हथियार डाल दिए।

इस हार ने केवल भारतीय टीम को गोल्ड मेडल से दूर नहीं किया, बल्कि हॉकी को देश में लोकप्रिय बनाने का सुनहरा मौका भी हाथ से निकल गया। देश में हॉकी गर्त में जा रही है। ऐसे हालात में देश के साथ साथ हॉकी को भी इस जीत की सख्‍त जरूरत थी। टीम इंडिया पर सभी की निगाहें भी लगी हुई थी। फायनल में जीत बगैर कुछ किए मुफ्त में ही हॉकी का प्रमोशन कर देती। इस बडे मौके को भूनाने में हमारे हॉकी खिलाडी नाकाम रहें। यह जीत देश में हॉकी के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती थी।

पाकिस्तान को ग्रुप मुकाबलों में हराने के बाद हम ऐसे जश्‍न में डूब गए, मानो वर्ल्ड कप फतह कर लिया हो। यह आकलन ही नहीं किया गया कि पाकिस्तान का इंटरनेशनल हॉकी में कोई वजूद नहीं है। इंग्‍लैंड के खिलाफ पेनल्टी स्‍ट्रोक में मिली जीत के बाद उम्मीदें सातवें आसमान तक पहुंच गई। आस्ट्रेलिया ने 8-0 से रौंद कर हमें फिर जमीन पर ला पटका है। इस हार ने इंटरनेशल हॉकी में हमारी हैसियत भी उजागर कर रख दी है।

टीम के कप्तान राजपाल सिंह से कुछ समय पहले मुलाकात हुई थी। भारतीय टीम के कप्‍तान का मानना था कि बडी स्‍पर्धाओं में जीत के अलावा कोई खुराक हॉकी की सेहत सुधार नहीं सकती है। राजपाल ने लाख टके की बात कही थी, लेकिन राजपाल की टीम ऐसा करने में नाकाम रही। कुश्‍ती, बाक्सिंग, शूटिंग और शतरंज देश में लोकप्रिय हो रहा है। क्रिकेट को धर्म मानने वाले इस देश में बैडमिंटन और टेनिस खिलाडियों की नयी पौध तैयार हो रही है। दरअसल क्रिकेट के पास सचिन तेंदुलकर, बैडमिंटन के पास साइना नेहवाल, बाक्सिंग के पास विजेंदर और कुश्ती के पास सुशील कुमार है। हॉकी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे खिलाड़ी अपना आदर्श बना सकें।

आखिर में बात चक दे इंडिया फेम मीर रंजन नेगी की। दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तरह 1982 एशियाड़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री भी हॉकी का फायनल मुकाबला देखने गई थी। मनमोहन सिंह की तरह इंदिरा गांधी को भी निराश होना पड़ा था। फायनल में पाकिस्तान ने भारत को 7-1 से करारी शिकस्त दी थी। नेगी उस वक्त भारतीय टीम के गोलकीपर थे। उन पर देशद्रोह जैसे घिनौने आरोप भी लगे थे। 1998 में नेगी ने बतौर कोच वापसी करते हुए टीम इंडिया को एशियाड़ में गोल्ड मेडल दिलवाया था। एशियन गेम्‍स दूर नहीं है। उम्‍मीद है भारतीय टीम मीर रंजन नेगी की तरह हार के अंधेरे को पीछे छोडकर हॉकी के मैदान पर नयी रोशनी बिखरेंगी।  भारतीय टीम को मनोबल बढ़ाने के लिए नेगी की ही किताब मिशन चक दे का यह अंश, जिसमें उनके संघर्ष का कुछ इस तरह से ज्रिक किया गया
हार की पीड़ा और अपमान को उन्‍होंने अपनी सफल होने की इच्‍छाशक्ति का प्रेरक बनाया और हॉकी के मैदान पर जीवन के स्‍वर्णिम नियमों को जाना-समझा। आप जिस शिखर को छूना चाहें, छू सकते हैं। चक दे इंडिया।

Monday, October 11, 2010

सचिन, सचिन, सचिन....





16 नवंबर, 2007 ग्‍वालियर वन डे। पाकिस्‍तान के खिलाफ सचिन तेंडुलकर 97 रन बनाकर क्रीज पर थे। स्‍टेडियम में मौजूद हजारों दर्शक ही नहीं देश भर में सचिन के करोड़ों चाहने वाले उनका शतक पूरा होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। उमर गुल की एक गेंद पर सचिन चूक गए। पाकिस्‍तान के खिलाफ यह लगातार दूसरा मौका और 2007 के सीजन में ऐसा छठी बार हो रहा था जब सचिन नर्वस नाईंटीज का शिकार हुए थे। उस वक्‍त सचिन के सात साल के बेटे अर्जुन ने पापा को सलाह दी थी कि वह 94 रन बनाने के बाद छक्‍का लगाकर क्‍यों नहीं अपना शतक पूरा कर लेते।


लगभग तीन साल बाद मोहाली में सचिन दो रन से 49 वां शतक बनाने से चूक गए थे। बेंगलुरू में ऐसा न हो इसके लिए सचिन ने 94 के स्‍कोर तक पहुंचने के पहले भी छक्‍का जमाया और शतक भी छक्‍का जमाकर पूरा किया। दरअसल, सचिन का कैरियर हर वक्‍त कुछ नया सीखने की ललक के साथ आगे बढा है। सचिन के लिए कभी यह महत्‍वपूर्ण नहीं रहा कि सलाह देने वाला कौन है।  दिमागी चतुराई औऱ दमखम के  इस खेल में सचिन के लिए हर सलाह और सबक ही महत्‍वपूर्ण रहा है। फिर चाहे यह अपने नन्हे बेटे से ही क्‍यों न मिली हो।


मुंबईकर के लिए लोकल, दिल्‍ली वालों के लिए मेट्रो और इंदौरवासियों के लिए सिटी बस को लाइफ लाइन माना जाता है। इनमें सफर कर इन शहरों की धडकन को आसानी से महसूस किया जा सकता है। सचिन ऐसे ही एक अरब बीस करोड लोगों के दिलों की धडकन है। हर शतक के बाद उनका वो हेलमेट निकालना...कुछ पलों के लिए आसमां की ओर देखना। फिर हेलमेट और बल्‍ला उपर कर दर्शकों का अभिवादन करना और फिर हेलमेट पर लगे राष्‍ट्रीय ध्‍वज को चूमना। सचिन की सफलता को व्‍यक्तिगत सफलता मानना और उनकी असफलता पर दुखी होना। 21 सालों से देश को सचिन की आदत सी हो गई है।

सचिन के शतक के देश के लिए क्‍या मायने है इसके लिए आस्‍ट्रेलियाई क्रिकेट लेखक पीटर रिबोक के अनुभव से बेहतर कोई और बात नहीं हो सकती। पीटर एक बार शिमला से दिल्‍ली लौट रहे थे। किसी स्‍टेशन पर ट्रेन रूकी हुई थी। सचिन शतक के करीब थे और 98 रनों पर बल्‍लेबाजी कर रहे थे। ट्रेन के यात्री, रेलवे अधिकारी और ट्रेन में मौजूद हर कोई इंतजार कर रहा था कि सचिन अपना शतक पूरा करे। यह जीनियस बल्‍लेबाज भारत में समय को भी रोक सकता है।


पिछले दो दशक से बल्‍ला थामने वाले हर बच्‍चे का ख्‍वाब सचिन तेंदुलकर जैसे ही सफलता अर्जित करना ही रहा है। टीम इंडिया के कप्‍तान एम एस धोनी हो या फिर नजफगढ के सुल्तान वीरेन्‍द्र सहवाग, सभी सचिन के खेल को देखते हुए ही बडे हुए। बेंगलुरू में पहला टेस्‍ट खेल रहे चेतेश्‍वर पुजारा की उम्र तो महज एक साल थी जब सचिन तेंदुलकर ने अन्‍तर्राष्‍ट्रीय क्रिकेट में पर्दापण किया था। सचिन की खासियत यह रही कि सफलता के नित नए पैमाने बनाने के बावजूद उनके कदम जमीन पर ही रहे। यही वजह है कि केवल क्रिकेटर ही नहीं शटलर साइना नेहवाला, बाक्सिंग के दबंग विजेंदर हो, टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा या फिर पाकिस्‍तान के जाने माने पेनल्‍टी कार्नर विशेषज्ञ सुहैल अब्‍बास, हर कोई सचिन तेंदुलकर को आदर्श का मानता है।

16 नवंबर को सचिन इंटरनेशनल क्रिकेटिंग कैरियर के 21 साल पूरे कर लेंगे। सचिन जिस मुकाम पर है उस तक पहुंचना तो दूर की बात है, उसके बारे में सोचना भी किसी क्रिकेटर के लिए एक बडे पराक्रम से कम नहीं होगा। सचिन ने जब टेस्‍ट क्रिकेट शुरू किया था, लगभग उसी वक्‍त देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था। देश ने पिछले 21 सालों में इस दौर के अच्छे और बुरे दोनों अनुभव देखे हैं। सचिन ने इन 21 सालों मे क्रिकेट की एकमेव सत्ता अपने हाथों में रखी है। देश ने वह दौर भी देखा है जब इंडिया का मतलब इंदिरा और इंदिरा का मतलब इंडिया माना जाता है राजनीति की भाषा में कहें तो आज क्रिकेट का मतलब सचिन हो गया है।

Tuesday, October 5, 2010

भारत एक खोज



मत कहो कि सर पे टोपी है, कहो सर पे हमारे ताज है.
आती थी एक दिवाली, बरसों में कभी खुशहाली
अब तो हर एक वार एक त्योहार है, ये उभरता-संवरता समाज है।
ये प्राण से प्यारी धरती, दुनिया की दुलारी धरती

ये अमन का दिया आंधियों में जला, सारी दुनिया को इस पे नाज़ है।
देख लो कहीं गम ना रहे, रौशनी कहीं कम ना रहे
सारे संसार की आंख हम पर लगी, अपने हाथों में अपनी लाज है।
यह पंक्तियां 1957 में बनी फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं है के एक गीत की है। इस गीत को शोमैन राजकपूर के पसंदीदा गीतकार और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित शैलेन्द्र ने लिखा था। यह गीत उस दौर में लिखा गया था, जब पूरी दुनिया एक नए मुल्क की ओर उमीदों भरी निगाहों से देख रही थी। यह पंक्तियां आज के दौर में भी मौजूं है। बस उसके मायने बदल गए है। दो सप्ताह पहले भी शैलेन्द्र के गीत की तरह सारे संसार की आंख हम पर लगी थी और अपने हाथों में ही अपनी लाज बचाने की जिम्मेदारी थी। बस नहीं थी तो उम्मीदें। हर ओर नाउम्मीदें थी। आर्थिक महाशक्ति की ओर बढ़ रहें मुल्क के कॅामनवेल्थ गेम्स के आयोजन में नाकाम होने की आशंका।

खेलगांव में गंदगी, डेंगू, आधे अधूरे निर्माण कार्य, सुरक्षा में चूक, भ्रष्टाचार, कई देशों की गेम्स से नाम वापस लेने की धमकी, भारत को मेजबानी सौंपने पर उठ रहे सवाल सुर्खियों में छाए हुए थे। दो सप्ताह पहले केवल दिल्ली के आसमान पर ही नहीं दिल्ली कॅामनवेल्थ खेलों पर भी संकट के बादल छाए हुए थे। दिल्ली के दामन पर लगे कलमाडी नुमा दाग इतने जिद्दी लग रहे थे कि कोई भी डिटर्जेंट इसे धोने का दावा नहीं कर सकता। तीन अक्टूबर की शाम को नयी दिल्ली में उद्घाटन समारोह की चकाचौंध ने सारे दाग धो दिए। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के नाम पर बने स्टेडियम में नये भारत की खोज हुई।

भारतीय संस्कृति में रचे बसे तीन घंटे के समारोह के जरिए दिल्ली ने अपना दम दिखा दिया। इस दबंगई के बाद दिल्ली से मुंह फेरने वाली दुनिया उसकी ओर टकटकी लगाए देख रही है। भारत ने अपनी शक्ति का अहसास करा दिया। 2006 के मेलबर्न गेम्स से जिसकी तुलना हो रही थी। 2012 के लंदन ओलंपिक से जिसे सबक सीखने की सलाह दी जा रही थी। दिलवालों की वह दिल्ली अब दुनिया के लिए पैमाना बन गई है। लंदन ओलंपिक के आयोजकों के माथे पर चिंता की लकीरें यूं ही नहीं है। जिस दिल्ली के लिए लंदन दूर की कौड़ी लग रही थी, उसी लंदन की पहुंच से दिल्ली काफी आगे निकल गई है। आधुनिक तकनीक और संस्कृति का भारतीय संगम पूरी दुनिया पर छा गया है।


भारत ने कूटनीति के मोर्चे पर भी अपनी दबंगई दिखा दी। यह पहला मौका था जब इतने बडे मंच पर भारतीयता की नुमाइंदगी मिजोरम का पहनावा कर रहा था। पड़ोसी मुल्क चीन के लिए संदेश साफ था कि पूर्वोत्तर भारत के लिए केवल जमीन का टुकड़ा भर नहीं बल्कि देश की साझा सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। वहीं पाकिस्तान सहित उपमहाद्वीप के देशों का दिल खोलकर स्वागत कर बड़े भाई का किरदार भी बखूबी अदा किया।

उद्घाटन समारोह अद्भुत, अतुल्य, अविश्सनीय और अविस्मरणीय रहा। लंदन से प्रकाशित फायनेशियल टाइम्स में स्टेंडर्ड चार्टड बैंक के निदेशक लिखते है
भारत की ताकत का आकलन सही तरीके से नहीं किया गया। आयोजन की सफल शुरूआत कर भारत ने अपनी ताकत दिखा दी है।
 अब जवाबदारी खिलाड़ियों पर है कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर पदक तालिका में भी भारत का दबदबा दिखाए। उद्घाटन समारोह में उन्हें जो सम्मान मिला है वह देश में क्रिकेटरों को भी नसीब नहीं होता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री खड़े होकर उनका अभिवादन किया है। देश का सर गर्व से उंचा उठा रहे इसकी जवाबदारी अब उन पर है।

Sunday, October 3, 2010

ओ यारो इंडिया बुला लिया



10 मर्इ 2010। राजधानी भोपाल में गरमी पूरे शबाब पर थी। पारा किसी तरह के समझौते के मूड में नहीं था। दोपहर बहुत सुस्त रफ्तार से शाम की ओर कदम बढ़ा रही थी। सवा चार बजे होंगे, जब एक फोन कॅाल ने खबरों की दुनिया में तेजी ला दी। कॅामनवेल्थ खेलों की बैटन के मध्यप्रदेश में आने के कार्यक्रम की घोषणा हो रही थी। खबर को ब्रेक करने के आधे घंटे के भीतर उसे फाइल भी कर दिया। सहयोगी रिपोर्टर विजय का दबाव था, जिसकी वजह से सारा काम जल्द खत्म हो गया। दबाव चाय पीने का था। इस दबाव के आगे झुकना यानि पारे से सीधे सीधे पंगा लेना था।


विरोध काम नहीं आया। चाय पीने के लिए दफ्तर से बाहर निकलना पडा। चाय की चुस्कियों के बीच विजय ने ही सबसे पहले बैटन थामने की चर्चा छेड़ी। यह ख्याल रोमांचित कर देने वाला था। अभी तक बैटन का जिक्र आते ही सबसे पहले दूरदर्शन की २२ साल पुरानी डाक्यूमेंट्री टॉर्च ऑफ फ्रीडम की तस्वीर ही नज़र आती है। मिले सुर मेरा तुम्हारा के दौर में बनी इस डाक्यूमेंट्री में देश की नामी खिलाडियों को मशाल थामे दिखाया गया था। हिरनों के बीच कुलांचे भरती पीटी उषा या फिर तेज बारिश में मशाल लेकर दौड़ते सुनील गावस्कर। नवाब पटौदी के साथ नन्हीं सोहा अली तो दीपिका पादुकोण के पिता और बैंडमिंटन के सितारा खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण भी  नज़र आते हैं।




बहरहाल, यह ख्याल जितनी तेजी से आया, खबरों की दौड़भाग में उतनी ही तेजी से पीछे भी छूट गया। इसी दौरान राजधानी से नाता टूटा और मुकाम एक बार फिर मध्यप्रदेश की खेल राजधानी इंदौर में जमा लिया। भोपाल में खेल मैदान के जितना करीब रहा, इंदौर में उतनी ही दूरी होती गर्इ। इन सबके बीच बैटन के मध्यप्रदेश में आमद देने की घड़ी नज़दीक आ पहुंची। बैटन के मध्यप्रदेश पहुंचने के दो दिन पहले पता चला कि बैटन थामने वालों की सूची में मेरा नाम भी शामिल है। यह दो दिन बड़े इत्तफाक लिए हुए रहे। बगैर किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अचानक कवरेज के लिए रतलाम जाने का आदेश हुआ। मौका भी ख़ास था, क्वींस बैटन मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश करने रही थी। बारिश की बूंदों और धूप की अठखेलियों की इन्द्रधनुषी छटां के बीच १५ सितंबर कि शाम को क्वींस बैटन मध्यप्रदेश पहुंची। इस ऐतिहासिक क्षणों का साक्षी बना, लेकिन बैटन थामने का मौका अभी नहीं आया था।




आखिरकार, ख़बर ब्रेक करने के 128 दिनों बाद बैटन को थामने का पल आया। 70 देशों, लगभग एक लाख 85 हजार किलोमीटर का सफर तय कर यह बैटन मेरे हाथों में आर्इ थी। बैटन, जिसे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने ओलंपिक गोल्ड मेडल अभिनव बिन्द्रा को सौपा था। एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले इस मुल्क में केवल पांच हज़ार चुनिंदा लोगों को बैटन थामने के लिए चुना गया था। उस बैटन को थामकर इंदौर की सड़कों पर दौड़ना किसी ख्वाब के सच होने जैसा बिलकुल नहीं है, क्योंकि यह कल्पनाशीलता से परे था।



खेल को छोड़ने के नौ साल और मध्यप्रदेश के सर्वोच्च खेल सम्मान विक्रम अवार्ड मिलने के आठ साल बाद सात समंदर पार से आर्इ बैटन को थामने का मौका मिला था। बकायदा इसके लिए तीन बजकर चालीस मिनिट का समय मुकर्रर हुआ था। अपने निर्धारित समय के एक घंटे पहले ही बैटन इंदौर पहुंच गर्इ। इस खास इवेंट को कवर कर रहे मेरे दो बेहद अज़ीज़ मित्र राहुल और समीर यदि समय पर इसकी सूचना नहीं देते तो बैटन छूटना तय थी। किसी तरह दौड़ते भागते बैटन को थाम ही लिया। उम्मीद है कि इसी तरह दौड़ते भागते ही सही हम कॅामनवेल्थ खेलों की सारी तैयारियों को अंतिम समय तक पूरा करते हुए इस एक सफल आयोजन बनाएंगे। आमीन।

Thursday, September 2, 2010

नापाक खिलाड़ी- नाकाम मुल्‍क


पाकिस्‍तान यानि पवित्र या पाक भूमि। यह पाक भूमि इस वक्‍त दुनिया की सबसे भीषणतम प्राकृतिक आपदा झेल रही है। आसमानी कहर 2000 से ज्‍यादा लोगों की जान ले चुका है। दो करोड़ से ज्‍यादा पाकिस्‍तानी इस आपदा में सब कुछ गंवाकर बेघर हो गए है। निराशा और बेबसी डूबा यह मुल्‍क इस आपदा से उबरने की कोशिश करता इसके पहले क्रिकेट में आए भूचाल ने पानी में डूबे पाकिस्‍तानियों का सिर शर्म से ओर झुका दिया है। रमजान के पाक माह में क्रिकेटरों की नापाक हरकतों ने जिन्‍ना के मुल्‍क में मैच फिक्सिंग का जिन्न फिर जाग गया है।
 
पाकिस्‍तान क्रिकेटरों की फिक्सिंग ने 63 साल से दुनिया के नक्‍शे पर खास पहचान बनाने के लिए जुझ रहे इस मुल्‍क को लेकर नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है। पाक खिलाडि़यों की इस करतूत को महज खेल में फिक्सिंग भर ये जोडकर नहीं देखा जाना चाहिए। इसकी जड़े कही गहरी एक मुल्‍क के नाकाम होने से जुड़ी हुई है। क्‍योंकि संकट के इस दौर में मुल्‍क का निजाम बाढ़ में डूबी जनता के दुख दर्द दूर करने की बजाए यूरोपीय देशों में मजे लूट रहा था।  शिक्षा और रोजगार के अभाव में पहले ही पाकिस्‍तानी युवा रॉकेट लांचर और एके 47 को थामने से गुरेज करते नहीं दिखते है। ऐसे में क्रिकेटरों की यह सौदेबाजी मुल्‍क के बिखराव के संकेत है। मुल्‍क के सबसे लोकप्रिय खेल की नुमाइंदगी में फख्र महसूस करने की बजाए उसकी आबरू का सौदा,  इससे ज्‍यादा शर्मिन्‍दगी किसी मुल्‍क के लिए और क्‍या हो सकती है।


इस मुल्‍क में क्रिकेटर, राजनेताओं और सैन्‍य शासक तीनों की फितरत एक जैसी नजर आती है। सभी कल हो ना हो की होड़ में मुल्‍क को बेचने से भी परहेज नहीं कर रहे है। क्रिकेटरों को लगता है कि कल खेलने को मिले या न मिले आज जितना माल कूट सकते है कूट लिया जाए। मुशर्रफ, जरदारी, नवाज शरीफ और जनरल जिया उल हक किसी को भी भरोसा नहीं रहा कि अगले पल उनकी कुर्सी सलामत रहेगी या नहीं। इसी के चलते किसी ने जमकर भ्रष्‍टाचार किया तो किसी ने अपने ही मुल्‍क के बाशिंदें को निर्वासित होने या फिर उसकी जिंदगी का सौदा करने का मौका भी नहीं छोड़ा।


पाकिस्‍तान की इस बदहाली पर इंटरनेट पर मौजूद दस्‍तावेजों को जरा नजर दौड़ाई जाए तो पिछले साल अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसैन हक्कानी की 14 वर्षीय बेटी मीरा हुसैन हक्कानी एक खत का जिक्र मिलता है। अखबार 'द न्यूज' में प्रकाशित 'अल्लाह के नाम खत'  में मीरा लिखती हैं, 'आजादी मिलने के 62 साल बाद भी पाकिस्तान खौफजदा है। भले ही उसके पास काफी जमीन है। लेकिन वह तबाह हो चुका है। उसके पर्वत कमजोर और बेसहारा हैं। गोलियों तथा बम धमाकों के कारण कभी खूबसूरत रही इसकी वादियां खाक में मिल चुकी हैं। उसके बच्चे भूखे हैं और आंसू बहा रहे हैं। यही पाकिस्तान है।' एक साल बाद अब शायद मीरा सोच रही होगी कि अशिक्षित, लाचार और बेसहारा लोगों ने मजबूरी में यह सब कुछ किया हो  लेकिन लाखों करोड़ों में खेलने वाले क्रिकेटर के के सामने तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। क्रिकेटरों की यह करतूत आत्‍मघाती हमले जैसी है, जिससे वह न तो खुद बच पाएंगे और नहीं मुल्‍कवासियों को चैन की सांस लेने देंगे।


19 साल का युवा क्रिकेटर मोहम्‍मद आमिर जो लॉडर्स टेस्‍ट के पहले दिन पाकिस्‍तान का हीरो था वह अब खलनायक बन चुका है। वसीम अकरम से भी शातिर और पैनी जिसकी गेंदबाजी मानी जा रही थी उसका कैरियर शुरू होने के पहले ही खत्‍म होने का खतरा मंडरा रहा है। पाकिस्‍तान के न जाने कितने खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर बनने का ख्‍वाब देखते है लेकिन उन्‍होंने मास्‍टर ब्‍लास्‍टर से कोई सब‍क नहीं लिया। सचिन ही है जिन्‍होंने इंग्‍लैंड के खिलाफ चेन्‍नई में शतक जमाते हुए एक अरब भारत वासियों को मुंबई हमले के गम से बाहर निकालने में मदद की थी। पाकिस्‍तान के नापाक खिलाडि़यों ने तो बाढ़ में डूबे अपने देशवासियों की पीड़ा को बढ़ाते हुए उन्‍हें ओर गर्त में डूबो दिया है। यहां मसला किसी एक कौम का नहीं है। पाकिस्‍तानी टीम की नुमाइंदगी करने वाले दानिश कनेरिया भी फिक्सिंग में फिक्‍स हो चुके है। यह जनाब तो काउंटी मुकाबलों में फिक्‍स करने के चलते ब्रिटिश हवालात की हवा भी खा चुके है।


राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी के विचारों में राष्‍ट्रीयता की सबसे खरी परीक्षा तो आखिर यही है कि हम राष्‍ट्र का हित बिलकुल उसी तरह देखें मानो वह हमारा व्‍यक्तिगत हित हो। पाकिस्‍तान में व्यक्तिगत हित को ही राष्‍ट्र का हित मान‍ लिया गया है। वहीं मुंशी प्रेमचंद के शब्‍दों में जिस सभ्यता का केन्‍द्र बिंदु स्‍वार्थ हो, वह सभ्‍यता नहीं अपितु संसार के लिए अभिशाप है और समूचे विश्‍व के लिए विपत्ति है। क्रिकेट में फिक्सिंग से लेकर आतंकियों की शरणस्‍थली बनने तक पाकिस्‍तान पूरी दुनिया के लिए विपत्ति ही बनता जा रहा है। कमजोर और अस्थिर पड़ोसी से भारत की चिंता कम होने की बजाए बढ़ना ही है। कराची में अपनी कब्र में जिन्‍ना इस वक्त करवट लेकर उस घड़ी को कोस रहे होंगे जब उन्‍होंने धर्म के आधार पर दो मुल्‍कों की कल्‍पना की थी।

Monday, August 30, 2010

लग गई ना मिर्ची

लग गई ना मिर्ची, अमिताभ बच्‍चन इन दिनों इसी टैग लाईन का प्रयोग चैंपियंस लीग टी20 के प्रमोशन के लिए कर रहे है। अमिताभ बच्‍चन ऐसे ही एक प्रमोशन में हर्शल गिब्‍स पर फायनल में हारने के‍ लिए कटाक्ष करते है। बिग बी का यह कटाक्ष टीम इंडिया पर बिलकुल सटीक बैठता है कि यूं तो आपकी टीम तोप है लेकिन फायनल में हमेशा लुढ़क जाती है। श्रीलंका में एमएस धोनी की टीम इंडिया एक बार फिर अहम मुकाबले में चारों खाने चित हो गई। यह हार इसलिए भी ज्‍यादा दुखदाई है कि यह पूरी टीम की विफलता है। श्रीलंका में गेंदबाजी से लेकर बल्‍लेबाजी तक सारी कमजोरियां एक साथ खुलकर सामने आ गई। 

हार जीत खेल का हिस्‍सा है लेकिन भारतीय टीम की हार दिल तोड़ देने वाली है। धोनी बिग्रेड ने श्रीलंका में मुकाबला करने के बजाए आत्‍मसमर्पण कर दिया। टीम इंडिया की यह हार जंग का ऐलान कर मैदान ए जंग में घुटने टेककर युद्धबंदी बनने जैसी है। मैदान में खिलाडि़यों में जीत के जज्‍बे और दृढ़ इच्‍छाशक्ति का अभाव साफतौर पर झलक रहा था। श्रीलंका में त्रिकोणीय श्रृंखला युवा खिलाडि़यों को वर्ल्‍ड कप के पहले खुद को साबित करने का एक अच्‍छा प्‍लेटफार्म था। श्रृंखला के बाद भी युवा खिलाडी इसी प्‍लेटफार्म पर है और वह सफलता की ट्रेन पर सवार होने का मौका गंवा चूके है।


श्रीलंका में भारतीय बल्‍लेबाजों का प्रदर्शन हजारों मील दूर इंदौर में मॉनसून जैसा रहा। इंदौर इस मॉनसून में अमूमन पूरे समय बादलों के आगोश में रहा। बादलों ने उम्‍मीद तो बहुत जगाई लेकिन बरसे नहीं। श्रीलंका में भारतीय युवा बल्‍लेबाजा का मिजाज भी कुछ ऐसा ही रहा। टीम इंडिया की यंग बिग्रेड ने उम्‍मीदें के बादलों को डेरा तो खूब जमाया लेकिन रनों के रूप में यह बादल बरस नहीं पाए। गिरते पड़ते और वीरेन्‍द्र सहवाग की मेहरबानी से फायनल में पहुंची टीम को इसका खामियाजा भी भुगतना पडा। टेस्‍ट सीरिज में श्रीलंका से हिसाब बराबर करने वाली इस टीम को त्रिकोणीय श्रृंखला में खिताब के बगैर खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। 

आईपीएल में केकेआर कोलकाता नाइट राइडर्स का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। टीम इंडिया के केकेआर यानि कोहली, कार्तिक और रोहित शर्मा भी नाकाम साबित हुए। मुंबई, दिल्‍ली और चेन्‍नई देश के तीन सबसे बड़े महानगरों की नुमाइंदगी करने वाले इन तीन युवा खिलाडि़यों को भरपूर मौके मिल रहे है। तीनों को भविष्‍य का आधारस्‍तंभ माना जा रहा है। भविष्‍य का तो पता नहीं लेकिन अभी तो इन तीनों के किले में विपक्षी गेंदबाज आसानी से सेंधमारी कर रहे है। क्रिकेटिंग दुनिया की चकाचौंध ने शायद इनके खेल की चमक फीकी कर दी है और वह अपनी प्रतिभा के साथ न्‍याय करते नजर नहीं आ रहे है। 

युवराज सिंह का राज अब क्रिकेट जगत से खत्‍म होता दिख रहा है। युवराज सिंह का चोटों से जुझना और मैदान पर असफलता का दौर जारी है। कप्‍तान के आशीर्वाद उन्‍हें मिला हुआ है और वन डे टीम में अब भी वह जगह बनाए हुए है। टेस्‍ट टीम से सौरव गांगुली की विदाई युवराज प्रेम की वजह से हुई थी। गांगुली भी अब टेस्‍ट टीम में नहीं है और युवराज भी टेस्‍ट टीम में वापसी के लिए संघर्ष कर रहे है। वन डे में पिछले एक साल से उनका बल्‍ला लगभग खामोश है। अब वक्‍त आ गया है कि युवराज को लेकर कड़ा फैसला लेने का। 

बल्‍लेबाज तो बल्‍लेबाज गेंदबाजों ने भी टीम को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। ईशांत शर्मा की असफलता का दौर जारी है। आईपीएल में उनकी गेंदों पर सबसे ज्‍यादा चौके जड़े गए थे। इसके बावजूद वह सुधरने का नाम नहीं ले रहे है। आशीष नेहरा, मुनफ पटेल और प्रवीण कुमार भी टुकड़े टुकड़े में अच्‍छा प्रदर्शन कर रहे है। स्पिन गेंदबाजी में तो कोई भी गेंदबाज विपक्षी टीम के लिए खतरा बनता ही नहीं दिख रहा है। इसके चलते पार्ट टाइम स्पिनरों से भरोसे ही काम चलाया जा रहा है। यह प्रयोग हर बार सफल सा‍बित नहीं होता है और समय समय पर टीम इसका खामियाज भुगत भी रही है। 

2007 से भारतीय टीम में युवा खून को मौका दिए जाने की पैरवी की जाती रही है। धोनी युग में टीम के कई वरिष्‍ठ खिलाडि़यों की छुट्टी हुई और युवाओं को बंपर मौके मिलते रहे है। टी20 वर्ल्‍ड कप के पहले संस्‍करण को छोड़ दे तो इन युवाओं ने निराश ही ज्‍यादा किया है। श्रीलंका में भी सचिन तेंदुलकर की गैरमौजूदगी में वीरेंद्र सहवाग ही टीम के सबसे बुजुर्ग खिलाड़ी थे। यदि सहवाग नहीं होते तो टीम फायनल में भी नहीं होती। 


आखिर में बात आर अश्विन और सौरभ तिवारी की। कप्‍तान का इन दोनों खिलाडि़यों को मौका न दिया जाना समझ से परे है। टीम को एक पिंच हीटर की सख्‍त जरूरत थी और सौरभ तिवारी उस जगह पर फिट बैठते है। आर अश्विन को लेकर एमएस की बेरूखी ज्‍याद चौंकाने वाली है। आईपीएल में चेन्‍नई सुपर किंग्‍स के लिए यही अश्चिन धोनी के सबसे मारक हथियार थे। धोनी तमिलनाडू के इस उच्‍चे कद के ऑफ स्पिनर को मुरलीधरन से ज्‍यादा तवज्‍जों देते थे। अश्चिन को एक भी मुकाबले में मौका न देना धोनी की रणनीतिक कमजोरी को उजागर करता है। जडेजा की असफलता का अन्‍तहीन सिलसिला खत्‍म नहीं हो रहा है। इसके बावजूद उन पर धोनी की विशेष कृपा समझ से परे है। वर्ल्‍ड कप दूर नहीं है और उपमहाद्वीप की पिचो पर यह प्रदर्शन और रणनीतिक चूक खतरे की घंटी है।

Monday, August 16, 2010

यह कैसा "विक्रम"


मध्‍यप्रदेश सरकार ने शुक्रवार को वर्ष 2010 के लिए प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मानों का ऐलान कर दिया। खिलाडि़यों के सम्‍मानित होने की यह घोषणा मुझे फ्लैश बैक में ले गई। सावन के इस मौसम में 2002 अप्रैल की वह तपती दुपहरिया याद आ गई जब प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मान विक्रम अवार्ड के लिए चुने जाने की ख़बर मिली थी। अवार्ड के लिए चुने जाने की उम्‍मीद तो थी फिर भी फोन पर मिली सूचना पर सहसा यकीन नहीं हुआ। दो तीन जगहों पर क्रास चेक करने पर तसल्‍ली हुई। 21 शताब्‍दी में घोषित पहले विक्रम पुरस्‍कारों की सूची में मेरा नाम सबसे उपर था। उस समय हर साल पुरस्‍कारों का ऐलान नहीं होता था।  दो सालों के पुरस्‍कारों का ऐलान एक साथ हुआ था। मेरे लिए दोहरी खुशी की बात यह थी कि दोनों ही साल खो खो खिलाडि़यों ने इस सूची में शीर्ष स्‍थान हासिल किया था। 2001 में यह पुरस्‍कार खेल के मैदान पर मेरे गुस्‍से को ठंडा करने में फ्रीजर की भूमिका निभाने वाले गजेन्‍द्र देशपांडे को मिला था।




पुरस्‍कार मुझे उस वक्‍त मिला था जब नौकरी के लिए भोपाल बसना पड़ा था। इसके लिए नवंबर 2001 में पंजाब नेशनल गेम्‍स को भी बीच में ही छोड़ना पडा था। शहर में बदलाव का वह दौर खेल के मैदान से जुदाई का शुरूआती दौर था। इसके पहले खेल के मैदान से एक पल की जुदाई बर्दाश्‍त नहीं होती थी, फिर धीरे धीरे खेल के लिए एक मिनिट निकालना चुनौती बन गया है। ऐसे करते करते आठ साल बीत गए। इस दौरान खेल से नाता लगभग टूट ही गया, लेकिन दिल में कही न कही यह बात हमेशा कटोचती रही। यदाकदा खेले गए क्रिकेट मुकाबलों को छोड़ दिया जाए तो खेल के मैदान से केवल और केवल ख़बरों के माध्‍यम से ही जुड़ा रहा। 


इन आठ सालों में खेल से दूरी और सरकार की बेरूखी जरूर सताती रही। खासतौर पर उन साथी खिलाडि़यों के लिए जिन्‍हें 1997 से 2007 के बीच प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मान के लिए चुना गया था। इन दस सालों में लगभग 100 खिलाड़ी थे जिन्‍हें सरकार ने विक्रम अवार्ड से नवाजा तो सही लेकिन नियमों के तहत सरकारी नौकरी नहीं दी। इस वजह से विक्रम अवार्ड से सम्‍मानित खिलाड़ी जो प्रदेश का गौरव होना चाहिए थे वह गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उन्‍होंने खेल छोड़ दिया लेकिन सरकार उनकी भावनाओं से खेलती रही। 


दस सालों में कभी खिलाडि़यों की पूछपरख नहीं हुई। सरकारी नुमाइंदों का रवैया तो ऐसा था मानो अवार्ड देकर खिलाडि़यों पर अहसान किया गया है। इस वजह से प्रदेश में धीरे धीरे खिलाडि़यों की पौध सूखती गई। सरकारी बेरूखी की वजह से ऐसे खिलाडि़यों के पास खेल को अलविदा कहने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं बचा। आज हालत यह है कि प्रदेश के कई ऐसे "विक्रम" है जो आरटीओ एजेंट बनकर या फिर ऐसी जगहों पर नौकरी कर रहे है जहां दो जुन की रोटी का जुगाड़ भी टेढ़ी खीर है। 

सरकार को अब भी ऐसे होनहार खिलाडि़यों की परवाह नहीं है और विक्रम अवार्ड लौटाने जैसे फैसले को भी अनसुना कर दिया गया। न तो कांग्रेस सरकार और नहीं बीजेपी सरकार ने इस और ध्‍यान दिया। खिलाडि़यों की पुकार को अनुसना कर दिया क्‍योंकि खिलाड़ी वोट बैंक नहीं होते। वह प्रदेश और देश का नाम भले ही रोशन करते रहे हो लेकिन उनकी उपलब्धियों की रोशनी से नेताओं के सिंहासन रोशन नहीं होते। अब पिछले दो सालों से जरूर विक्रम अवार्डी को नौकरी मिलने शुरूआत हो गई है लेकिन इसके पहले नेताओं की बेरूखी की वजह से प्रदेश में खिलाडि़यों की एक पूरी पीढ़ी खत्‍म हो गई। 


मध्‍यप्रदेश सरकार इन दिनों महिला और पुरूष हॉकी पर जमकर पैसा लुटा रही है। ओलंपिक हो या फिर कोई अन्‍य अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍पर्धा में उपलब्धि हासिल करने वाले खिलाड़ी उनके लिए भी मध्‍यप्रदेश सरकार खजाना खोलकर वाहवाही बंटोर रही है। खेल के जानकार जानते है कि इससे मध्‍यप्रदेश के खिलाडि़यों का रत्‍ती भर भी फायदा नहीं होना है। ऐसे खिला‍ड़ी जिनका प्रदेश से कोई लेना देना नहीं है और जिनके लिए सब दूर से मदद से हाथ उठ रहे है उन्‍हें मदद देना या सम्‍मनित करने के औचित्‍य पर सवाल खड़े होते रहे है। खिलाडि़यों को नौकरी देकर उन्‍हें खेल से जोड़कर रखने पर सरकार को बजट की चिंता सताती है लेकिन जहां वाहवाही मिलती है वहां पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। हमारे नेताओं को चिंता है कि चीयर लीडर्स खेल के मैदान में होना चाहिए या नहीं। हमारे नेता इसमें सर खफा रहे है कि खेल संगठनों पर काबिज कैसे हुआ जाए। मध्‍यप्रदेश के ये "विक्रम" खेल के मैदान पर भले ही पराक्रम दिखाते हो लेकिन नेताओं के आगे यह सारे धुरंधर शिकस्‍त खा बैठे।



यह पोस्‍ट एक फुटबॉल मैच खेलकर लौटने के बाद लिख रहा हूं। पसीने में तरबतर किट जिसे लंबे समय से मिस कर रहा था आज सुखद अहसास दे रही थी। वह बारिश में कीचड़ में खेलना, अंपायर से झगड़ना, मुकाबले के दौरान साथी खिलाडि़यों से गाली गलौज। आज भी टीवी पर कोई बेहद रोमांचक मुकाबला देखता हूं तो पांवों में हलचल होने लगती है। मुकाबलें के पहले राष्‍ट्र गान हो या फिर जीत की खुशी और रोमांचक मुकाबले में धड़कन का रूक सा जाना, नेताओं को इससे क्‍या वास्‍ता। उनकी धड़कन तो वोटों की गिनती से ही दौड़ती और थमती है। 2010 के विक्रम, एकलव्‍य और विश्‍वामित्र अवार्ड के चुने जाने वाले खिलाडि़यों और प्रशिक्षकों को बधाई।