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Monday, October 18, 2010

मौका गंवा दिया इंडिया

रील और रियल लाइफ में समानताएं ढूंढने के बाद भी नहीं मिलती है। इसके बावजूद न जाने क्‍यों हर वक्‍त हम जीवन में रील लाइफ के अक्स ढूंढने की कोशिश करते है। ऐसा ही कुछ कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में पुरूष हॉकी के फायनल मुकाबले को लेकर हुआ। चक दे इंडिया की तरह रियल लाइफ में भी नीली जर्सी वाली टीम से करिश्‍माई तरीके से वापसी कर जीत की आस जगी थी। कबीर खान की टीम शुरूआती दौर में आस्‍ट्रेलियाई से हारी थी। फिल्‍म के अंत में यही टीम आस्‍ट्रेलिया को शिकस्‍त देकर खिताब जीतती है। लेकिन, रील लाइफ की तरह जीवन में हर बात की हैप्पी एंडिंग नहीं होती है। भारतीय टीम ने बगैर लड़े ही वर्ल्‍ड चैपियंस के सामने हथियार डाल दिए।

इस हार ने केवल भारतीय टीम को गोल्ड मेडल से दूर नहीं किया, बल्कि हॉकी को देश में लोकप्रिय बनाने का सुनहरा मौका भी हाथ से निकल गया। देश में हॉकी गर्त में जा रही है। ऐसे हालात में देश के साथ साथ हॉकी को भी इस जीत की सख्‍त जरूरत थी। टीम इंडिया पर सभी की निगाहें भी लगी हुई थी। फायनल में जीत बगैर कुछ किए मुफ्त में ही हॉकी का प्रमोशन कर देती। इस बडे मौके को भूनाने में हमारे हॉकी खिलाडी नाकाम रहें। यह जीत देश में हॉकी के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती थी।

पाकिस्तान को ग्रुप मुकाबलों में हराने के बाद हम ऐसे जश्‍न में डूब गए, मानो वर्ल्ड कप फतह कर लिया हो। यह आकलन ही नहीं किया गया कि पाकिस्तान का इंटरनेशनल हॉकी में कोई वजूद नहीं है। इंग्‍लैंड के खिलाफ पेनल्टी स्‍ट्रोक में मिली जीत के बाद उम्मीदें सातवें आसमान तक पहुंच गई। आस्ट्रेलिया ने 8-0 से रौंद कर हमें फिर जमीन पर ला पटका है। इस हार ने इंटरनेशल हॉकी में हमारी हैसियत भी उजागर कर रख दी है।

टीम के कप्तान राजपाल सिंह से कुछ समय पहले मुलाकात हुई थी। भारतीय टीम के कप्‍तान का मानना था कि बडी स्‍पर्धाओं में जीत के अलावा कोई खुराक हॉकी की सेहत सुधार नहीं सकती है। राजपाल ने लाख टके की बात कही थी, लेकिन राजपाल की टीम ऐसा करने में नाकाम रही। कुश्‍ती, बाक्सिंग, शूटिंग और शतरंज देश में लोकप्रिय हो रहा है। क्रिकेट को धर्म मानने वाले इस देश में बैडमिंटन और टेनिस खिलाडियों की नयी पौध तैयार हो रही है। दरअसल क्रिकेट के पास सचिन तेंदुलकर, बैडमिंटन के पास साइना नेहवाल, बाक्सिंग के पास विजेंदर और कुश्ती के पास सुशील कुमार है। हॉकी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे खिलाड़ी अपना आदर्श बना सकें।

आखिर में बात चक दे इंडिया फेम मीर रंजन नेगी की। दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तरह 1982 एशियाड़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री भी हॉकी का फायनल मुकाबला देखने गई थी। मनमोहन सिंह की तरह इंदिरा गांधी को भी निराश होना पड़ा था। फायनल में पाकिस्तान ने भारत को 7-1 से करारी शिकस्त दी थी। नेगी उस वक्त भारतीय टीम के गोलकीपर थे। उन पर देशद्रोह जैसे घिनौने आरोप भी लगे थे। 1998 में नेगी ने बतौर कोच वापसी करते हुए टीम इंडिया को एशियाड़ में गोल्ड मेडल दिलवाया था। एशियन गेम्‍स दूर नहीं है। उम्‍मीद है भारतीय टीम मीर रंजन नेगी की तरह हार के अंधेरे को पीछे छोडकर हॉकी के मैदान पर नयी रोशनी बिखरेंगी।  भारतीय टीम को मनोबल बढ़ाने के लिए नेगी की ही किताब मिशन चक दे का यह अंश, जिसमें उनके संघर्ष का कुछ इस तरह से ज्रिक किया गया
हार की पीड़ा और अपमान को उन्‍होंने अपनी सफल होने की इच्‍छाशक्ति का प्रेरक बनाया और हॉकी के मैदान पर जीवन के स्‍वर्णिम नियमों को जाना-समझा। आप जिस शिखर को छूना चाहें, छू सकते हैं। चक दे इंडिया।

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