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Wednesday, August 24, 2011

रेहान का मिस्‍टर डिपेंडेबल



फना फिल्म में आतंकी बने आमिर खान और उनके बेटे रेहान के बीच एक छोटा लेकिन बड़ा ही रोचक संवाद है। आतंकी पिता और उसके मासूम बेटे के बीच यह संवाद राहुल द्रविड़ को लेकर है। आतंकी पिता कहते है, 'वह राहुल द्रविड़ की तरह क्रिकेट नहीं खेल सकते है। डिपेंडेबल नहीं है और राहुल द्रविड़ की तरह उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।'  पिता पुत्र के बीच यह कुछ पलों का संवाद है। रेहान को अपने राहुल द्रविड़ पर अटूट विश्वास है। रील लाइफ के रेहान से लेकर रियल लाइफ के करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की नजर में इस भरोसे को एक बार फिर कायम रखा है। द्रविड़ ने इंग्लैंड सीरीज में जता दिया कि क्‍यो उन्‍हें मिस्टर डिपेंडेबल कहां जाता है।


आमिर खान तरह राहुल द्रविड़ को मिस्‍टर डिपेंडेबल के साथ मिस्‍टर परफेक्‍ट कहां जाता है। उन्‍हें यह दर्जा शास्‍त्रीय शैली की क्रिकेट खेलने की वजह से हासिल हुआ है। हालांकि वह आमिर खान की तरह खुशकिस्‍मत नहीं है कि जो अपनी स्क्रिप्‍ट से लेकर सह कलाकार और निर्देशक तक चुनने के लिए स्‍वतंत्र है। द्रविड़ के हाथों में न तो विकेट का मिजाज है और नहीं विपक्षी गेंदबाजों के तीखे तेवरों को नियंत्रित करने का हथियार। मौसम के बदलते रूख से भी उन्‍हें दो चार होना पड़ता है। इसके बावजूद वह भरोसेमंद बने हुए है। इंग्लैंड सीरीज में एक नहीं कई बार द्रविड़ ने इस बात को साबित किया है। टीम की नैया हर बार मझधार में फंसी रही। ऐसे आड़े वक्‍त में द्रविड़ विकेट पर अंगद के पांव की तरह जम गए। सचिन, लक्ष्‍मण और रैना के मझधार में साथ छोड़ने के बाद भी उनका धैर्य नहीं डगमाया। एकला चलो रे की तर्ज पर वह मोर्चे पर डटे रहे।


राहुल द्रविड़ की फितरत ही ऐसी है कि उनके लिए बल्‍ले से निकलने वाले रन और टीम की जीत के अलावा कोई बात मायने नहीं रखती। द वॉल को न तो इस बात की कोई शिकन है कि भारतीय टीम की बल्‍लेबाजी का बोझा वह साल दर साल ढो रहे है और ना हीं इस जवाबदारी को लेकर किसी तरह का कोई घमंड। वह उस सैनिक की तरह है जो एक मोर्चा फतह करने के बाद अगला मोर्चा फतह करने के लिए निकल पड़ता है।


भारतीय टीम के फेब फोर में लक्ष्‍मण के बाद द्रविड़ ही ऐसे खिलाड़ी है जिन्‍हें वह श्रेय नहीं मिल पाया जिसके वह हकदार रहे है। भारतीय टीम के जीत की बुलंदियों से छूने के सफर में वह हमेशा नींव का पत्‍थर बने रहे। इंग्लैंड के खिलाफ सीरीज शुरू होने के पहले द्रविड़ का जिक्र भी नहीं हो रहा था। हर किसी की जुबां पर केवल और केवल क्रिकेट के 'भगवान' के शतकों के शतक का जिक्र था। टेस्ट दर टेस्ट सचिन का इंतजार बढ़ता गया, लेकिन दीवार आड़े वक्त मजबूती के साथ खड़ी रहीं।  सीरीज खत्म होने के बाद द्रविड़ के खाते में तीन शतक है और दुनिया की सबसे मजबूत बल्लेबाजी क्रम का कोई भी बल्लेबाज उनके नजदीक भी नहीं हैं।


द्रविड़ हर मुश्किल घड़ी में टीम इंडिया के काम आए, लेकिन वह अनसंग हीरो के तरह ही रहे।। आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ ईडन गार्डन में वीवीएस लक्ष्‍मण की 281 रनों की पारी का जिक्र होता है लेकिन विकेट की दूसरी ओर जमे रहकर 180 रनों की पारी खेलने वाले द्रविड़ को याद नहीं किया जाता। सचिन के शतक और गांगुली की कप्‍तानी में आस्‍ट्रेलिया में मिली टेस्‍ट जीत का समय समय पर जिक्र होता है लेकिन ऐडिलेड में उनकी मैच विनिंग पारी का भूले से भी जिक्र नहीं होता।


कुल जमा राहुल द्रविड़ का व्‍यक्तित्‍व टीवी पर दिखाए जाने वाले एक सीमेंट कंपनी के विज्ञापन की तरह है। यह विज्ञापन संदेश देता है कि एक खास किस्‍म के सीमेंट से बनी दीवार टूटेगी नहीं। भारतीय टीम की यह दीवार भी करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की उम्‍मीदों पर यूं ही मजबूती से हर मोर्चे पर खडी है। विपक्षी गेंदबाजों के हर थपेड़े को झेलने के बाद द वॉल का आवरण चमकदार और विश्वसनीय बना हुआ है।

Wednesday, June 29, 2011

ये कौन चित्रकार है...


वेंगीपुराप्‍पु वेंकटा साई लक्ष्‍मण, अंग्रेजी वर्णमाला के 27 अक्षरों को प्रयोग कर यह नाम बना है। यह नाम जितना स्‍पेशल और लंबा है उतना ही स्‍पेशल और उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्‍त वाला वह शख्‍स है, जिसकी पहचान यह नाम है। क्रिकेट प्रेमियों के लिए वह वीवीएस यानि वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण है। अपने नाम के मुताबिक वह एक बार फिर टीम इंडिया के लिए वेरी वेरी स्‍पेशल साबित हुए है। विपरीत हालातों में खेली उनकी पारी ने वेस्टइंडीज की धरती पर धोनी बिग्रेड की लाज बचा ली।

वीवीएस लक्ष्‍मण को यूं तो हमेशा कोलकाता में आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ फॉलोआन खेलते हुए 281 रनों की पारी के लिए याद किया जाता है।  हालांकि लक्ष्‍मण ने कई बार ऐसी यादगार पारियां खेली है। कोलंबो, सिडनी, नेपियर हो या फिर मोहली या वेस्टइंडीज का कोई मैदान। लक्ष्मण का बल्ला हर जगह खूब चला। 


लक्ष्मण की ज्यादातर पारियां विपरीत हालातों में ही खेली गई है। भारत का शीर्ष क्रम जब जब लड़खड़ाया, वीवीएस ने विपक्षी गेंदबाजों के आगे लक्ष्मण रेखा खींच दी।  लक्ष्‍मण ऐसे हालात में विपक्षी टीम के सामने अंगद के पांव की तरह जम जाते है। जैसे आंच में तपकर सोना कुंदन बनता है वैसे ही दबाव की तपिश में लक्ष्‍मण को खेल निखरता है। विरोधी टीम जितना हावी होती है उतना ही लक्ष्‍मण का खेल परवान चढ़ता जाता है। लक्ष्‍मण को भी मानो बहाव के विपरीत कश्‍ती चलाने में ही ज्‍यादा मजा आता है। 

वीवीएस लक्ष्‍मण की कलात्‍मक बल्‍लेबाजी को देखना अपने आप में एक यादगार अनुभव है। कोई चित्रकार जैसे किसी तस्‍वीर को बनाता है उसी तरह वीवीएस की पारी संजी संवरी रहती है। वह जब बल्‍लेबाजी करते है तो बल्‍ला चित्रकार की कूची और मैदान कैनवास सा नजर आता है। चित्रकार जैसे कही बेहद हल्के स्‍ट्रोक्‍स का इस्‍तेमाल अपनी कलाकृति में करता है कुछ उसी तरह लक्ष्‍मण का बल्‍ला स्पिन गेंदबाज के खिलाफ करीने से लेट कट या ऑन ड्राईव लगाता नजर आता है। चित्रकार कही तीखे चटक रंग के इस्‍तेमाल से कलाकृति को चार चांद लगाता है तो उसी तरह तेज गेंदबाजों के खिलाफ बेधड़क जमाए लक्ष्‍मण के पुल शॉटस उनकी बल्‍लेबाजी को नयी उंचाईयों पर ले जाते है।

दरअसल, लक्ष्‍मण जिस दौर में भारतीय टीम का हिस्‍सा बने वह दौर सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड का दौर रहा। इसके बाद सौरव गांगुली और फिर एम एस धोनी की लोकप्रियता की वजह से यह स्टाइलिश बल्‍लेबाज वह सम्‍मान नहीं पा सका जिसका वह हकदार है। उन्‍हें हर बार अपनी काबिलियत साबित करनी पड़ी। टीम इंडिया को नंबर एक का ताज दिलाने में उनका भी अहम योगदान रहा लेकिन वह टीम में अनसंग हीरो की तरह ही रहे।

सौरव गांगुली की विदाई के बाद गोल्‍डन फैब फोर में अगला निशाना वीवीएस लक्ष्‍मण को माना जा रहा था। 2008 में धोनी के नेतृत्‍व में युवाओं को मौका देने की बात जोर पकडने लगी थी। लक्ष्‍मण की जगह युवराज की पैरवी की जा रही थी। लक्ष्‍मण ने विचलित हुए बगैर अपना स्‍वाभाविक खेल जारी रखा। तीन साल बाद भी लक्ष्‍मण टीम के मुख्‍य आधार स्‍तंभ और जीत के शिल्‍पकार बने हुए है। वहीं युवराज टेस्ट टीम में जगह बनाने के लिए नए और युवा बल्लेबाजों से संघर्ष कर रहे है।



लक्ष्मण आज दुनिया भर के गेंदबाजों को अपनी कलात्मक बल्लेबाजी से दुविधा में डाल रहे है, लेकिन एक वक्त वह खुद एक बड़ी दुविधा में फंस गए थे। वीवीएस लक्ष्‍मण अपने माता पिता की तरह डाक्‍टर बनना चाहते थे। इसके लिए उन्‍होंने डाक्‍टरी की पढाई भी शुरू कर दी। 17 साल की उम्र में लक्ष्‍मण धर्मसंकट में फंस गए थे। उन्‍हें डाक्‍टरी की पढ़ाई या क्रिकेट दोनों में से एक को चुनना था। लक्ष्‍मण ने स्‍टेथस्‍कोप थामने की बजाए बल्‍ला थामने  का फैसला लिया। लक्ष्‍मण के शब्‍दों,  "मैंने बतौर क्रिकेटर खुद को साबित करने के लिए पांच साल की समय सीमा तय की। यदि मैं राष्‍ट्रीय टीम में जगह बनाने में कामयाब नहीं होता तो डाक्‍टर बन जाता। "

वीवीएस ने जो लक्ष्‍मण रेखा तय की थी उसके खत्‍म होने तक वह दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ टेस्‍ट मैच में पदार्पण कर चुके थे। हालांकि यह बात भी उतनी ही सच है कि जितना धैर्य, समर्पण, नज़ाकत और आत्‍मविश्‍वास लक्ष्‍मण में है यदि वह डाक्‍टरी पेशे में भी होते तो वहां भी खूब नाम और सम्‍मान कमाते।

Thursday, April 28, 2011

थैक्यू मिस्टर डेनिस लिली


वन डे क्रिकेट में 18 हजार से ज्यादा रन, टेस्ट में लगभग 15 हजार रन, टेस्ट व वन डे में कुल जमा 99 शतक, क्रिकेट वर्ल्ड कप का खिताब और भी दर्ज़नों रिकार्ड सचिन तेंडुलकर के नाम नहीं होते यदि आस्ट्रेलिया के तेज गेंदबाज डेनिस लिली नहीं होते। सचिन क्रिकेट की दुनिया में आज जो मुकाम हासिल किया है, उसमे उनकी प्रतिभा, मेहनत, समर्पण के साथ डेनिस लिली की नेक सलाह का भी अहम योगदान है। लिली ही थे जिन्होंने सचिन को गेंद के बजाए बल्ला थामने की सलाह दी थी। लिली राह नहीं दिखाते तो मराठी कवि का यह बेटा शायद मुंबई के लाखों क्रिकेटरों की तरह गुमनामी में खोकर रह जाता।

सचिन की उम्र महज 13 साल थी तब उनकी आंखों में तेज गेंदबाज बनने का ख्वाब पल रहा था। दुनिया के तेज गेंदबाजों में अपने बल्लेबाजी से खौफ़ पैदा करने वाले सचिन खुद तेज गेंदबाज बनकर बल्लेबाजों को दहलाना चाहते थे। भला हो डेनिस लिली का जिन्होने सचिन को गेंदबाज की बजाए बल्लेबाज बनने की सीख दी। लिली की यह सलाह 22 साल से पूरी दुनिया के गेंदबाजों के लिए सिरदर्द साबित हो रही है। इतना ही नहीं लिली के देश के सर्वकालिक महान स्पिनर शेन वार्न को तो सचिन सपनों में भी डराते थे।

पांच फुट पांच इंच का सचिन क्रिकेट के मैदान पर नित नए उंचाई छू रहा है, लेकिन इस हीरे को उनके गुरू रमाकांत आचरेकर के अलावा किसी जौहरी ने परखा तो वह डेनिस लिली ही थे। सचिन के लिए भी लिली की सलाह को नजरअंदाज करना आसान नहीं था। लिली सचिन के लिए क्या मायने रखते है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब 15 साल की उम्र में सचिन ने पहली बार उनकी गेंद का सामना किया था। सचिन इतने उत्साहित थे कि उन्होंने सीधे अपने भाई अजीत से फोन पर बात की और उन्हें बताया था कि लिली ने मेरे खिलाफ गेंद फेंकी।

डेनिस लिली यदि सचिन तेंडुलकर को रिजेक्ट नहीं करते तो केवल भारत ही नहीं दुनिया का क्रिकेट इतिहास शायद ही इतना गौरवशाली होता। क्रिकेट को भले ही धर्म माना जाता लेकिन क्रिकेट प्रेमियों को इबादत के लिए भगवान शायद ही मिलता। क्रिकेट प्रेमियों को 22 साल से भगवान को दुनिया के अलग अलग मैदानों में चमत्कार देखने को मिल रहे तो इसके लिए उन्हें डेनिस लिली का शुक्रगुजार होना चाहिए।

अंत में डेनिस लिली के शब्दों में ही जान लेते है कि सचिन की बल्लेबाजी के मायने उनके लिए क्या है
यदि मैं सचिन को गेंदबाजी करता तो मैं जरूर हेलमेट लगाकर गेंदबाजी करता क्योंकि वह गेंद पर जबर्दस्त प्रहार करते हैं।

Wednesday, April 27, 2011

यादगार लम्हा


एक अरब 21 करोड़ लोगों की दुआ रंग लाई। 28 साल बाद क्रिकेट की दुनिया में भारत का परचम फिर लहराया। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंडुलकर का अधूरा ख्वाब हकीकत में बदल रहा था। जीवन के सबसे गौरवशाली क्षणों में क्रिकेट का भगवान भी भावुक हो उठा। 22 साल के लंबे कैरियर में जो नहीं हुआ वह देखने को मिला। सचिन का चेहरा आंसूओं से भींगा हुआ था।

सचिन अच्छे अच्छे गेंदबाजों को रूला देते है लेकिन दो अप्रैल की रात को वानखेड़े स्टेडियम पर मास्टर ब्लास्टर की आंखे छलक रही थी। क्रिकेट के मैदान पर बरसों से अपने इमोशन को कन्ट्रोल करने वाले सचिन वर्ल्ड कप की जीत के इस लम्हे को जीकर इतने भावुक हो गए कि आंखों से आंसू रोक नहीं सकें।

टीम इंडिया के खिलाड़ियों के चेहरे आंसूओं से भरे हुए थे। इन दृश्यों के अलावा वर्ल्ड कप जीत के बाद सचिन को अपने कंधों पर उठाए स्टेडियम का चक्कर लगा रहे उनसे आधी उम्र के विराट कोहली की तस्वीर भी सामने आ जाती है तो साथ ही याद आता विराट का उम्मीदों से बढ़कर दिया गया बयान जिसमें सचिन को कंधे पर बैठाकर स्टेडियम का चक्कर लगाने पर वह कहते है ' 21 साल तक देश की उम्मीदों का बोझ उठाया है और आज हमारी बारी थी उन्हें कंधे पर उठाकर सम्मान देने की।'

वर्ल्ड कप जीत का खुमार इतना था कि एक दृश्य जो लोगों के जेहन में बस नहीं पाया। यह वह क्षण था जब मैच के बाद सचिन तेंडुलकर इंटरव्यू दे रहे थे। इस दौरान सचिन फिर भावुक हो उठे थे। ऐसे में इंटरव्यू लेने वाले संजय मांजरेकर पर किसी की नजर नहीं पड़ी।


यह वही संजय मांजरेकर थे जो कुछ सालों पहले सचिन पर अपने कड़वे बोलों से लिपटे बयानों की बाउंसर फेंक रहे थे। कभी सचिन को असफलताओं से डरने वाला बताया तो आए दिन घायल होने और उनकी फिटनेस पर सवाल खड़े किए। आस्ट्रेलिया के खिलाफ जब भारत 351 रनों के भारी भरकम लक्ष्य से तीन रन दूर रह गया था तब भी मांजरेकर सचिन पर बरस पड़े थे। सचिन 175 रनों की पारी खेलने के बाद आउट हुए थे। इतने नजदीक पहुंचने के बाद मुकाबला नहीं जीतने पर सचिन को अफसोस रहा लेकिन मांजरेकर को उस समय भी कटाक्ष करने का मौका मिल गया था। मांजरेकर ने कहा कि मुझे पता था कि सचिन आखिरकार टीम को निराश कर जाएंगे जैसा उन्होंने पहले भी किया है। पहले भी कई ऐसे मौके रहे हैं, जब सचिन टीम को जीत की दहलीज पर पहुंचाकर खुद ही फिसल गए और अब एक बार फिर उन्होंने ऐसा ही किया।

सचिन तेंडुलकर अमूमन संजय मांजरेकर की आलोचनाओं का जवाब देने से बचते रहे। केवल मांजरेकर नहीं बल्कि किसी भी आलोचना का जवाब अपने बल्ले से देने वाले सचिन ने वर्ल्ड कप में भी कुछ ऐसा ही करिश्मा किया था। एक दौर में लगातार हो रही आलोचना के बाद सचिन ने जवाब दिया था कि उन पर जो पत्थर फेके जाते है वह उन्हे माइल स्टोन में बदलने में भरोसा रखते है। वर्ल्ड कप जीतने के बाद सचिन एक बार फिर उस बात को सार्थक करते नजर आए। संजय इन बातों को समझ न पाए क्योंकि वह माइल स्टोन बनाने में नहीं बल्कि शायद पत्थर फेंकने में ज्यादा भरोसा करते है।

Tuesday, April 26, 2011

सचिन तेंदुलकर, राहुल गांधी और कांग्रेस

सचिन तेंडुलकर, कांग्रेस और राहुल गांधी। किसी भी नजरिए से देखा जाए तो तीनों में किसी तरह का कोई सामंजस्य नजर नहीं आता। सचिन क्रिकेट के मैदान पर नित नए कीर्तिमान रच रहे है। कांग्रेस अब भी देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है और राहुल गांधी इस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव है। क्रिकेट से राहुल का रिश्ता बस इतना है कि वह कभी कभार दर्शक के रूप में क्रिकेट के मैदान पर नजर आ जाते है। इन तीनों में आपसी गठजोड़ जानने के लिए 22 साल पीछे जाने की जरूरत है।

1989 यह वही साल था जब सचिन ने इंटरनेशनल क्रिकेट में चहलकदमी थी। क्रिकेट में सचिन के हिमालयीन सफर का आगाज और कांग्रेस के शिखर से नीचे फिसलने का सफर लगभग साथ ही शुरू हुआ। सचिन महज 16 साल की उम्र में जब पाकिस्तानी गेंदबाजों का कचूमर निकाल रहे थे तो लोकसभा चुनाव में मतदाता कांग्रेस के एक के बाद एक विकेट गिरा रहे थे। आजादी के बाद यह दूसरा मौका था जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई।

सचिन के क्रिकेट की दुनिया में एकछत्र राज की मजबूत नींव 22 साल पहले पड़ी थी। कांग्रेस के एकछत्र राज की समाप्ति का दौर भी इसी के साथ शुरू हो गया था। समय के साथ साथ सचिन अकेले ही भारतीय टीम के तारणहार बन गए तो कांग्रेस को एकला चलो की नीति को बाजू में रखकर विरोधी दलों से हाथ मिलाने पड़े।

1989 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने मतदान की आयु सीमा 21 साल से घटाकर 18 साल की थी। सचिन उस वक्त पाकिस्तान की ज़मी पर मुल्क का झंडा बुलंद कर रहे थे। इसके बावजूद उन्हें अपने मुल्क में अपना नुमाइंदा चुनने का अधिकार नहीं था। सचिन की उम्र भले ही 16 साल थी लेकिन यह वही चुनाव था जिसमें राहुल गांधी ने पहली बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया होगा।

1989 के बाद सचिन ने पीछे मूड़कर नहीं देखा। वहीं राहुल गांधी को मतदान का अधिकार मिलने के बाद हुए हर चुनाव में कांग्रेस को सहयोगी दलों की ओर देखना पड़ा। कांग्रेस जैसे जैसे कमजोर होती गई सचिन इंटरनेशनल क्रिकेट में उतनी ही दमदारी से अपनी जगह मजबूत करते गए। देश में एकछत्र राज करने वाली पार्टी राज्यों में सिमट कर रह गई। गठबंधन के समझौते करने पड़े तो मजबूत गढ़ एक एक कर विरोधी दलों के कब्जे में जाते रहे। सचिन एक अरब से ज्यादा भारतवासियों की उम्मीदों का बोझ अपने कांधों पर लादे रहे तो कांग्रेस को देश का नेतृत्व करने के लिए गठबंधन की बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा।

1989 से शुरू हुआ यह सिलसिला अब भी जारी है। ज्यादा समय नहीं बीता जब भुराड़ी में कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। कांग्रेस गांधी परिवार में अपना भविष्य ढूंढ रही थी। सबकी निगाहें राहुल गांधी पर टिकी हुई थी। अधिवेशन में पहले सारा मजमा सोनिया गांधी और दिग्विजय सिंह ने लूट लिया। राहुल गांधी की बारी आने के पहले ही सचिन ने दक्षिण अफ्रीका में सेंचुरियन के मैदान पर शतक जमाकर शतकों का अर्धशतक पूरा कर लिया। भुराड़ी में राहुल गांधी की बजाए सचिन की जय जयकार होने लगी। राहुल गांधी को पीछे छोड़ कांग्रेसी नेताओं में सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न दिए जाने की पैरवी करने की होड़ मच गई।

अभी पांच राज्यों में चुनाव हो रहे है। कांग्रेस का जनाधार दरकता जा रहा है। वह अधिकांश राज्यों में गठबंधन के सहारे चुनावी समर में उतर रही है। वही सचिन की मौजूदगी में टीम इंडिया ने दुनिया जीत ली है। 28 साल बाद क्रिकेट की दुनिया में भारत का परचम लहरा रहा है। कांग्रेसी नेताओं के दामन पर भ्रष्टाचार के दाग नजर आ रहे है तो बेदाग सचिन केवल क्रिकेटरों के लिए नहीं बल्कि करोड़ों भारतवासियों के लिए रोल मॉडल बने हुए है।

Monday, April 25, 2011

सचिन की रूहानी मोहब्बत


क्रिकेट एक जुनून है और सचिन उस जुनून का दूसरा नाम ... लेकिन बात यहीं नहीं ठहरती .. सचिन क्रिकेट के जुनूनी प्लेयर से शायद आगे बढ़कर हैं ... क्रिकेट उनकी मोहब्बत है ... सचिन और क्रिकेट की मोहब्बत देख उमराव जान का वह संवाद याद आ जाता है जिसमें कोठे में बैठा एक बुजुर्ग उमराव जान से कहता है 'या तो किसी की हो जाओ या किसी को अपना बना लो।' सचिन तेंडुलकर और क्रिकेट की मोहब्बत का फलसफा भी कुछ ऐसा ही है। सचिन तेंडुलकर क्रिकेट के हो गए।

सत्य साईं बाबा के निधन के बाद बेहद दुखी थे। कयास लगाए जा रहे थे कि सचिन डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ मैच में न खेलें लेकिन सचिन का क्रिकेट के प्रति प्यार समर्पण औऱ जुनून ही था जो उन्हें मुकाबले तक खींच लाया। सचिन चाहते तो न खेलने का फैसला कर सकते थे। लेकिन क्रिकेट का भगवान अपने कर्तव्य पथ से कभी अलग नहीं हो सकता। भारी मन से ही सही लेकिन सचिन मैदान में उतरे और अपनी टीम को जीत दिलाई। 

सचिन का ये जुनून, खेल के लिए उनका समर्पण पहले भी देखा गया है। सचिन के पिताजी का 1999 के वर्ल्ड कप के दौरान निधन हो गया। सचिन वर्ल्ड कप के बीच में ही घर आए और पिताजी का अंतिम संस्कार के बाद तुरंत लौट गए। यही नहीं उन्होंने कीनिया के खिलाफ शानदार शतक ठोका औऱ आकाश में भरी नजरों से देखा शायद अपने दिवंगत पिता को यही कहा होगा कि आप देखिए आपका बेटा अपने कर्तव्य पथ पर अडिग है।

सचिन जानते हैं कि उनकी प्राथमिकताएं क्या हैं।  इसका मतलब ये नहीं कि वो भावुक नहीं। जिन्हें लगता है कि सचिन भावुक नहीं और केवल जुनूनी व्यक्ति हैं उन्हें याद करना होगा कीनिया के खिलाफ मैच शतक मारने के बाद क्रिकेट के इस दीवाने की आंखे भी नम हो गई थी। मानो वो शतक उन्होंने अपने पिता को याद करते हुए ही बनाया था। इस बार भी आध्यात्मिक आराध्य सत्य साईं बाबा के निधन के बाद सचिन जब उन्हें श्रृद्धाजलि देने पहुंचे तो आंखों में आंसू उमड़ पड़े। आखिर सचिन भी एक इंसान हैं और इंसान अपनी भावनाओं के आगे हमेशा विवश हो जाता है। सचिन की भावुक भावनाएं भी छलक उठी।

इंसान होने के नाते सचिन भावुक हैं तो क्रिकेटर होने के तौर पर प्रोफेशनल प्लेयर हैं।  क्रिकेट प्रति उनकी यह जीवटता, समर्पण और कभी न हार मारने का जज्बा ही उन्हें दुनिया के बाकी क्रिकेटरों की जमात में काफी आगे रखता है। इतना आगे कि कोई उन तक पहुंच भी नहीं पाता है। सचिन और क्रिकेट एक दूजे के होकर रह गए है। क्रिकेट को धर्म माना जाता है तो सचिन को यूं ही भगवान का दर्जा नहीं दिया गया है। सचिन ने भी जीवन के अहम मौकों पर बता दिया कि दुनिया भले ही उन्हें भगवान कहती हो लेकिन क्रिकेट उनके लिए भी एक धर्म ही है।

क्रिकेट से मोहब्बत और जीवटता के मामले में सचिन के करीब कोई नजर आता है तो वह दिल्ली के विराट कोहली है। साल 2006 में कर्नाटक के खिलाफ रणजी ट्राफी मुकाबले में दिल्ली की टीम मुसीबत में थी। दिल्ली की सारी उम्मीदें विराट कोहली पर टिकी हुई थी जो दिन का खेल खत्म होने पर 40 रनों पर नाबाद थे। विराट अगले दिन बल्लेबाजी शुरू कर पाते इसके पहले ही उनके पिता के निधन की खबर आ जाती है। पिता को अंतिम विदाई देने के पहले विराट फिरोजशाह कोटला पर 90 रनों की पारी खेल अपनी टीम के लिए तारणहार बनते है। किसी भी खेल के लिए जो जूनुन चाहिए वह सचिन या विराट में नजर आता है जो किसी आम इंसान के बस का नहीं है।

खेल हो या मोहब्बत। दुनिया उसी को सलाम करती है जिन्होंने खुद को इसके लिए समर्पित कर दिया।। हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट जैसे प्रेमियों को दुनिया आज भी याद करती है। सचिन और क्रिकेट की मोहब्बत भी बस कुछ ऐसी ही है।