मध्यप्रदेश सरकार ने शुक्रवार को वर्ष 2010 के लिए प्रदेश के सर्वोच्च खेल सम्मानों का ऐलान कर दिया। खिलाडि़यों के सम्मानित होने की यह घोषणा मुझे फ्लैश बैक में ले गई। सावन के इस मौसम में 2002 अप्रैल की वह तपती दुपहरिया याद आ गई जब प्रदेश के सर्वोच्च खेल सम्मान विक्रम अवार्ड के लिए चुने जाने की ख़बर मिली थी। अवार्ड के लिए चुने जाने की उम्मीद तो थी फिर भी फोन पर मिली सूचना पर सहसा यकीन नहीं हुआ। दो तीन जगहों पर क्रास चेक करने पर तसल्ली हुई। 21 शताब्दी में घोषित पहले विक्रम पुरस्कारों की सूची में मेरा नाम सबसे उपर था। उस समय हर साल पुरस्कारों का ऐलान नहीं होता था। दो सालों के पुरस्कारों का ऐलान एक साथ हुआ था। मेरे लिए दोहरी खुशी की बात यह थी कि दोनों ही साल खो खो खिलाडि़यों ने इस सूची में शीर्ष स्थान हासिल किया था। 2001 में यह पुरस्कार खेल के मैदान पर मेरे गुस्से को ठंडा करने में फ्रीजर की भूमिका निभाने वाले गजेन्द्र देशपांडे को मिला था।
पुरस्कार मुझे उस वक्त मिला था जब नौकरी के लिए भोपाल बसना पड़ा था। इसके लिए नवंबर 2001 में पंजाब नेशनल गेम्स को भी बीच में ही छोड़ना पडा था। शहर में बदलाव का वह दौर खेल के मैदान से जुदाई का शुरूआती दौर था। इसके पहले खेल के मैदान से एक पल की जुदाई बर्दाश्त नहीं होती थी, फिर धीरे धीरे खेल के लिए एक मिनिट निकालना चुनौती बन गया है। ऐसे करते करते आठ साल बीत गए। इस दौरान खेल से नाता लगभग टूट ही गया, लेकिन दिल में कही न कही यह बात हमेशा कटोचती रही। यदाकदा खेले गए क्रिकेट मुकाबलों को छोड़ दिया जाए तो खेल के मैदान से केवल और केवल ख़बरों के माध्यम से ही जुड़ा रहा।
इन आठ सालों में खेल से दूरी और सरकार की बेरूखी जरूर सताती रही। खासतौर पर उन साथी खिलाडि़यों के लिए जिन्हें 1997 से 2007 के बीच प्रदेश के सर्वोच्च खेल सम्मान के लिए चुना गया था। इन दस सालों में लगभग 100 खिलाड़ी थे जिन्हें सरकार ने विक्रम अवार्ड से नवाजा तो सही लेकिन नियमों के तहत सरकारी नौकरी नहीं दी। इस वजह से विक्रम अवार्ड से सम्मानित खिलाड़ी जो प्रदेश का गौरव होना चाहिए थे वह गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उन्होंने खेल छोड़ दिया लेकिन सरकार उनकी भावनाओं से खेलती रही।
दस सालों में कभी खिलाडि़यों की पूछपरख नहीं हुई। सरकारी नुमाइंदों का रवैया तो ऐसा था मानो अवार्ड देकर खिलाडि़यों पर अहसान किया गया है। इस वजह से प्रदेश में धीरे धीरे खिलाडि़यों की पौध सूखती गई। सरकारी बेरूखी की वजह से ऐसे खिलाडि़यों के पास खेल को अलविदा कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। आज हालत यह है कि प्रदेश के कई ऐसे "विक्रम" है जो आरटीओ एजेंट बनकर या फिर ऐसी जगहों पर नौकरी कर रहे है जहां दो जुन की रोटी का जुगाड़ भी टेढ़ी खीर है।
सरकार को अब भी ऐसे होनहार खिलाडि़यों की परवाह नहीं है और विक्रम अवार्ड लौटाने जैसे फैसले को भी अनसुना कर दिया गया। न तो कांग्रेस सरकार और नहीं बीजेपी सरकार ने इस और ध्यान दिया। खिलाडि़यों की पुकार को अनुसना कर दिया क्योंकि खिलाड़ी वोट बैंक नहीं होते। वह प्रदेश और देश का नाम भले ही रोशन करते रहे हो लेकिन उनकी उपलब्धियों की रोशनी से नेताओं के सिंहासन रोशन नहीं होते। अब पिछले दो सालों से जरूर विक्रम अवार्डी को नौकरी मिलने शुरूआत हो गई है लेकिन इसके पहले नेताओं की बेरूखी की वजह से प्रदेश में खिलाडि़यों की एक पूरी पीढ़ी खत्म हो गई।
मध्यप्रदेश सरकार इन दिनों महिला और पुरूष हॉकी पर जमकर पैसा लुटा रही है। ओलंपिक हो या फिर कोई अन्य अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में उपलब्धि हासिल करने वाले खिलाड़ी उनके लिए भी मध्यप्रदेश सरकार खजाना खोलकर वाहवाही बंटोर रही है। खेल के जानकार जानते है कि इससे मध्यप्रदेश के खिलाडि़यों का रत्ती भर भी फायदा नहीं होना है। ऐसे खिलाड़ी जिनका प्रदेश से कोई लेना देना नहीं है और जिनके लिए सब दूर से मदद से हाथ उठ रहे है उन्हें मदद देना या सम्मनित करने के औचित्य पर सवाल खड़े होते रहे है। खिलाडि़यों को नौकरी देकर उन्हें खेल से जोड़कर रखने पर सरकार को बजट की चिंता सताती है लेकिन जहां वाहवाही मिलती है वहां पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। हमारे नेताओं को चिंता है कि चीयर लीडर्स खेल के मैदान में होना चाहिए या नहीं। हमारे नेता इसमें सर खफा रहे है कि खेल संगठनों पर काबिज कैसे हुआ जाए। मध्यप्रदेश के ये "विक्रम" खेल के मैदान पर भले ही पराक्रम दिखाते हो लेकिन नेताओं के आगे यह सारे धुरंधर शिकस्त खा बैठे।
यह पोस्ट एक फुटबॉल मैच खेलकर लौटने के बाद लिख रहा हूं। पसीने में तरबतर किट जिसे लंबे समय से मिस कर रहा था आज सुखद अहसास दे रही थी। वह बारिश में कीचड़ में खेलना, अंपायर से झगड़ना, मुकाबले के दौरान साथी खिलाडि़यों से गाली गलौज। आज भी टीवी पर कोई बेहद रोमांचक मुकाबला देखता हूं तो पांवों में हलचल होने लगती है। मुकाबलें के पहले राष्ट्र गान हो या फिर जीत की खुशी और रोमांचक मुकाबले में धड़कन का रूक सा जाना, नेताओं को इससे क्या वास्ता। उनकी धड़कन तो वोटों की गिनती से ही दौड़ती और थमती है। 2010 के विक्रम, एकलव्य और विश्वामित्र अवार्ड के चुने जाने वाले खिलाडि़यों और प्रशिक्षकों को बधाई।
10 comments:
Hats off to all such devoted players....
भैया मेरे लिए तो यह बिल्कुल नई बात है, जब आपकों पुरस्कार मिला था तब मैं आपकी शख्सियत से वाकीफ नहीं था 8 साल पुरानी तस्वीर देखकर खेल के प्रति आपका जुनून साफ झलकता है वैसे एक बात और कि खेल के मैदान से आपका दूर होना हमारे लिए अच्छा रहा है यदि आप मैदान में होते तो हम आपका सानिध्य पाने से चूक जाते आपके ब्लॉग का लेआऊट भी बहुत पसंद आया
खैर कोई बात नहीं। जो होता है, अच्छे के लिए होता है, ऐसा गीता का कहना है और हमें तो अपने कर्म करते जाना है। एक खिलाड़ी आज एक बेहतर और सच्ची समझ वाला खेल पत्रकार है, यह भी तो एक उपलब्धि ही है- खेल जगत के लिए।
राज्य सरकार खेल और खिलाड़ियों के साथ हमेशा दोयम दर्जे का व्यवहार करती आई है। राज्य के लिए ये शर्मनाक है कि आज तक यहां से नेशनल लेवल पर कोई खिलाड़ी उभर कर नहीं आ पा रहे हैं राज्य सरकार की मशीनरी खेल प्रशासन नेता और ब्यूरोक्रेसी सभी इसके लिए उत्तरदायी हैं। याद होगा आपको राज्य में क्रिकेट के दो स्टेडियम है इंदौर और ग्वालियर,,, ग्वालियर का स्टेडियम तो महाराजा सिंधिया ने बचा लिया लेकिन शायद इंदौर का कोई धनी-धोरी नहीं. तभी तो खराब पिच की कालिख से ये स्टेडियम आज तक अपना दामन साफ नहीं कर पाया है।
मनोज जी, खेलों से मिला जज्बा और जुझारुपन अब मैदान में न सही किसी और क्षेत्र में तो काम आ रहा है। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। सरकारो, अधिकारियों के बारे में कुछ कहने की जरुरत नहीं है। आप और मैं कहते ही रहते हैं।
achchha lika hai. patrakarita bhi khel hi to hai. sab khel hi rahe hai.... so gud, jo huaa achchha huaa. ब्लॉग का naya लेआऊट भी बहुत पसंद आया.
- jitendra chourasiya
yar sach kahoo to main khel ko bilkul nhi samjhta or na pasand karta hoo, lekin estarah ke lekh achchhe lagate hai. judav bhi mahsoos hota hai.
अच्छा लिखा है.. बधाईयां
is baar ki theme badhiya hai aur welcome note bhi
यही रोना है बॉस, हमारे यहाँ अच्छे खिलाड़ी धूल फाँकते हैं और यहाँ न्यूजीलैंड-आस्ट्रेलिया में बच्चा जरा सा इंट्रस्ट शो बस कर दे कि स्कूल अपनी तरफ से स्पेशल कोचिंग का जुगाड़ कर देता है। अभी आयुष पाँच साल के ही हुए हैं...लंबाई अच्छी है लेकिन रगबी , बॉस हमने तो इस गेम का नाम नहीं सुना था। राजीव के लिए यह गेम हड्डियाँ तोड़ने वाला खेल है उसके हिसाब से इतने छोटे और पतले बच्चे के लिए क्रिकेट ही ठीक है। लेकिन आयुष ने स्कूल में तीन-चार बार में कुछ बेसिक क्या सीख लिया कि टीचर ने हमें स्कूल बुलाकर कह दिया कि इसके लिए समर ट्रेनिंग की व्यवस्था की जा सकती है। अभी से बेसिक गेम सीखेगा तो इसके लिए बेहतर होगा। इस पर खास बात यह है कि महाराज किसी टॉप के प्राइवेट स्कूल में नहीं बल्कि हमारे जोन में आने वाले सरकारी स्कूल में पढ़ते है। वैसे तस्वीरों में अच्छे लग रहे हो। उम्मीद तो नहीं फिर भी दुआ है कि हमारे यहाँ भी बच्चों के लिए खासकर खिलाड़ियों के लिए कुछ जमीन तैयार की जाएँगी। वैसै कॉमनवैल्थ के क्या हाल है। यहाँ के अखबार और मीडिया में कमजोर तैयारियों की विवेचना जारी है...
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