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Saturday, October 30, 2010

प्‍लेमेकर या ब्‍लैकमेलर


पालोमी घटक.... नाम तो सुना होगा। टेबल टेनिस में भारत की सितारा खिलाडी। हाल ही में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में एक सिल्‍वर और एक ब्रांज पदक जीता है, बंगाल की इस बाला ने।  पश्चिम बंगाल सरकार की घोषणा के मुताबिक इस उपलब्धि पर उन्‍हें एक फ्लेट मिलना चाहिए। फ्लेट तीन है और कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में बंगाल से पदक जीतने वाले खिलाडि़यों की संख्‍या ग्‍यारह, बड़ी नाइंसाफी है। ऐसे में पालोमी का नंबर नहीं लग पाया। अब फ्लेट नहीं मिलने से यह मोहतरमा इतनी नाराज है कि उन्‍होंने राष्‍ट्रीय खेलों में अपने राज्‍य की नुमाइंदगी ही नहीं करने की धमकी भी दे डाली है। 



पालोमी से किसी तरह की हमदर्दी हो इसके पहले यह जान लेना जरूरी है कि उन्‍हें फ्लेट क्‍यों नहीं मिल पाया। राज्‍य सरकार ने फ्लेट की कमी को वजह बताया है। सरकार ने बंगाल ओलंपिक एसोसिएशन की सिफारिश पर फ्लैटों का आवंटन कर दिया। वेटलिफ्टिंग में रजत पदक जीतने वाले सुखन डे, 400 मीटर रिले में कांस्‍य पदक जीतने वाले रहमतउल्‍ला और तैराकी में कांस्‍य पदक जीतने वाले प्रशांत कर्माकर को प्राथमिकता के आधार पर यह फ्लैट दिए गए है। रहमतुल्‍ला के पिता कारपेंटर है तो सुखन डे और प्रशांत की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं है। वह सबसे ज्‍यादा जरूरतमंद थे इसलिए उन्‍हें वरीयता दी गई। पालोमी खुद पेट्रोलियम बोर्ड में है और उनके मंगेतर सौम्‍यदीप राय भी पेट्रोलियम बोर्ड की सेवाओं में है। देश की नंबर एक टेबल टेनिस खिलाड़ी का यह रवैया इसलिए दिल तोड़ देने वाला है।


पालोमी सरीखा रवैया भारतीय खेल इतिहास की रवायत बन चुका है। हाल ही में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। ज्‍यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, पालोमी के पहले सानिया मिर्जा कुछ ऐसा ही रवैया दिखा चुकी है, जब उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज के अपमान के मामले में फंसने के बाद देश के लिए ही नहीं खेलने की धमकी दी थी। ट्रायल के नाम पर कुछ ऐसी ही दबंगई ओलंपिक में स्‍वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिन्‍द्रा भी दिखा चुके है। लिएंडर पेस और महेश भूपति का देश हित के से ज्‍यादा व्‍यक्तिगत हित को को अहमियत देना किसी से छुपा नहीं है। देश में क्रिकेट के इतर खेलों में यह बीमारी पुरानी है। यह घाव समय समय पर पामौली जैसी खिलाडि़यों की करतूतों की वजह से रिसता रहता है।

इस बात से किसी को इंकार नहीं है कि इन खिलाडि़यों की सफलता में सरकार का योगदान कम इनकी व्‍यक्तिगत मेहनत, समर्पण और परिवार से मिले समर्थन का अंश ज्‍यादा है। फिर भी अब तस्‍वीर बदल रही है। सरकार अब खेलों के लिए भी अपना खजाना खोल रही है। अभी कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में ही सरकार ने खिलाडि़यों पर साढ़े छह सौ करोड़ रूपयों की भारी भरकम राशि खर्च की है। मुल्‍क को अब क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में भी खिलाडि़यों की सफलता पर फ़ख्र होता है। कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में साइना नेहवाल के फायनल मुकाबले पर करोड़ों भारत वासियों की निगाहें टिकी हुई थी तो हॉकी फायनल मुकाबले के टिकिट ब्‍लैक में भी नहीं मिल रहे थे। देश बदल रहा है लेकिन खिलाडि़यों में खेल भावना और देश प्रेम की भावना की बजाए व्‍यक्तिगत फायदा महत्‍वपूर्ण बना हुआ है।


क्रिकेट को कोसने वाले दीगर खेल के खिलाडि़यों को क्रिकेटरों से जरूर सबक लेना चाहिए। क्रिकेटर कभी ऐसी धमकी नहीं देते है। वेरी वेरी स्‍पेशल लक्ष्‍मण को मर्जी नहीं होने के बावजूद ओपनिंग करनी करनी पड़ी तो राहुल द्रविड़ को कीपिंग, लेकिन इन खिलाडि़यों ने जरा सा भी विरोध नहीं किया। चुपचाप खुद को टीम की जरूरतों के मुताबिक ढाल लिया। इसकी वजह भी साफ है, यह खिलाड़ी अच्‍छी तरह से जानते है कि उनकी सितारा हैसियत तभी तक बनी हुई जब तक वह टीम इंडिया का हिस्‍सा है। यदि जरा भी ना नुकर की तो उनकी जगह लेने के लिए खिलाडि़यों की फौज तैयार है। बाकी खेलों का दुर्भाग्‍य रहा है कि उसमें भारतीय टीम में शामिल होने के लिए इतनी प्रतिस्‍पर्धा नहीं रही। इसी का फायदा यह सो कॉल्‍ड सितारा खिलाड़ी उठाते रहे है। उम्‍मीद की जाना चाहिए कि क्रिकेटरों की तरह दूसरे खेलों में भी इतनी युवा प्रतिभाएं सामने आएंगी कि कोई पालोमी इस तरह ब्‍लैकमेलिंग न कर सकें।

Monday, October 18, 2010

मौका गंवा दिया इंडिया

रील और रियल लाइफ में समानताएं ढूंढने के बाद भी नहीं मिलती है। इसके बावजूद न जाने क्‍यों हर वक्‍त हम जीवन में रील लाइफ के अक्स ढूंढने की कोशिश करते है। ऐसा ही कुछ कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में पुरूष हॉकी के फायनल मुकाबले को लेकर हुआ। चक दे इंडिया की तरह रियल लाइफ में भी नीली जर्सी वाली टीम से करिश्‍माई तरीके से वापसी कर जीत की आस जगी थी। कबीर खान की टीम शुरूआती दौर में आस्‍ट्रेलियाई से हारी थी। फिल्‍म के अंत में यही टीम आस्‍ट्रेलिया को शिकस्‍त देकर खिताब जीतती है। लेकिन, रील लाइफ की तरह जीवन में हर बात की हैप्पी एंडिंग नहीं होती है। भारतीय टीम ने बगैर लड़े ही वर्ल्‍ड चैपियंस के सामने हथियार डाल दिए।

इस हार ने केवल भारतीय टीम को गोल्ड मेडल से दूर नहीं किया, बल्कि हॉकी को देश में लोकप्रिय बनाने का सुनहरा मौका भी हाथ से निकल गया। देश में हॉकी गर्त में जा रही है। ऐसे हालात में देश के साथ साथ हॉकी को भी इस जीत की सख्‍त जरूरत थी। टीम इंडिया पर सभी की निगाहें भी लगी हुई थी। फायनल में जीत बगैर कुछ किए मुफ्त में ही हॉकी का प्रमोशन कर देती। इस बडे मौके को भूनाने में हमारे हॉकी खिलाडी नाकाम रहें। यह जीत देश में हॉकी के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती थी।

पाकिस्तान को ग्रुप मुकाबलों में हराने के बाद हम ऐसे जश्‍न में डूब गए, मानो वर्ल्ड कप फतह कर लिया हो। यह आकलन ही नहीं किया गया कि पाकिस्तान का इंटरनेशनल हॉकी में कोई वजूद नहीं है। इंग्‍लैंड के खिलाफ पेनल्टी स्‍ट्रोक में मिली जीत के बाद उम्मीदें सातवें आसमान तक पहुंच गई। आस्ट्रेलिया ने 8-0 से रौंद कर हमें फिर जमीन पर ला पटका है। इस हार ने इंटरनेशल हॉकी में हमारी हैसियत भी उजागर कर रख दी है।

टीम के कप्तान राजपाल सिंह से कुछ समय पहले मुलाकात हुई थी। भारतीय टीम के कप्‍तान का मानना था कि बडी स्‍पर्धाओं में जीत के अलावा कोई खुराक हॉकी की सेहत सुधार नहीं सकती है। राजपाल ने लाख टके की बात कही थी, लेकिन राजपाल की टीम ऐसा करने में नाकाम रही। कुश्‍ती, बाक्सिंग, शूटिंग और शतरंज देश में लोकप्रिय हो रहा है। क्रिकेट को धर्म मानने वाले इस देश में बैडमिंटन और टेनिस खिलाडियों की नयी पौध तैयार हो रही है। दरअसल क्रिकेट के पास सचिन तेंदुलकर, बैडमिंटन के पास साइना नेहवाल, बाक्सिंग के पास विजेंदर और कुश्ती के पास सुशील कुमार है। हॉकी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे खिलाड़ी अपना आदर्श बना सकें।

आखिर में बात चक दे इंडिया फेम मीर रंजन नेगी की। दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तरह 1982 एशियाड़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री भी हॉकी का फायनल मुकाबला देखने गई थी। मनमोहन सिंह की तरह इंदिरा गांधी को भी निराश होना पड़ा था। फायनल में पाकिस्तान ने भारत को 7-1 से करारी शिकस्त दी थी। नेगी उस वक्त भारतीय टीम के गोलकीपर थे। उन पर देशद्रोह जैसे घिनौने आरोप भी लगे थे। 1998 में नेगी ने बतौर कोच वापसी करते हुए टीम इंडिया को एशियाड़ में गोल्ड मेडल दिलवाया था। एशियन गेम्‍स दूर नहीं है। उम्‍मीद है भारतीय टीम मीर रंजन नेगी की तरह हार के अंधेरे को पीछे छोडकर हॉकी के मैदान पर नयी रोशनी बिखरेंगी।  भारतीय टीम को मनोबल बढ़ाने के लिए नेगी की ही किताब मिशन चक दे का यह अंश, जिसमें उनके संघर्ष का कुछ इस तरह से ज्रिक किया गया
हार की पीड़ा और अपमान को उन्‍होंने अपनी सफल होने की इच्‍छाशक्ति का प्रेरक बनाया और हॉकी के मैदान पर जीवन के स्‍वर्णिम नियमों को जाना-समझा। आप जिस शिखर को छूना चाहें, छू सकते हैं। चक दे इंडिया।

Monday, October 11, 2010

सचिन, सचिन, सचिन....





16 नवंबर, 2007 ग्‍वालियर वन डे। पाकिस्‍तान के खिलाफ सचिन तेंडुलकर 97 रन बनाकर क्रीज पर थे। स्‍टेडियम में मौजूद हजारों दर्शक ही नहीं देश भर में सचिन के करोड़ों चाहने वाले उनका शतक पूरा होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। उमर गुल की एक गेंद पर सचिन चूक गए। पाकिस्‍तान के खिलाफ यह लगातार दूसरा मौका और 2007 के सीजन में ऐसा छठी बार हो रहा था जब सचिन नर्वस नाईंटीज का शिकार हुए थे। उस वक्‍त सचिन के सात साल के बेटे अर्जुन ने पापा को सलाह दी थी कि वह 94 रन बनाने के बाद छक्‍का लगाकर क्‍यों नहीं अपना शतक पूरा कर लेते।


लगभग तीन साल बाद मोहाली में सचिन दो रन से 49 वां शतक बनाने से चूक गए थे। बेंगलुरू में ऐसा न हो इसके लिए सचिन ने 94 के स्‍कोर तक पहुंचने के पहले भी छक्‍का जमाया और शतक भी छक्‍का जमाकर पूरा किया। दरअसल, सचिन का कैरियर हर वक्‍त कुछ नया सीखने की ललक के साथ आगे बढा है। सचिन के लिए कभी यह महत्‍वपूर्ण नहीं रहा कि सलाह देने वाला कौन है।  दिमागी चतुराई औऱ दमखम के  इस खेल में सचिन के लिए हर सलाह और सबक ही महत्‍वपूर्ण रहा है। फिर चाहे यह अपने नन्हे बेटे से ही क्‍यों न मिली हो।


मुंबईकर के लिए लोकल, दिल्‍ली वालों के लिए मेट्रो और इंदौरवासियों के लिए सिटी बस को लाइफ लाइन माना जाता है। इनमें सफर कर इन शहरों की धडकन को आसानी से महसूस किया जा सकता है। सचिन ऐसे ही एक अरब बीस करोड लोगों के दिलों की धडकन है। हर शतक के बाद उनका वो हेलमेट निकालना...कुछ पलों के लिए आसमां की ओर देखना। फिर हेलमेट और बल्‍ला उपर कर दर्शकों का अभिवादन करना और फिर हेलमेट पर लगे राष्‍ट्रीय ध्‍वज को चूमना। सचिन की सफलता को व्‍यक्तिगत सफलता मानना और उनकी असफलता पर दुखी होना। 21 सालों से देश को सचिन की आदत सी हो गई है।

सचिन के शतक के देश के लिए क्‍या मायने है इसके लिए आस्‍ट्रेलियाई क्रिकेट लेखक पीटर रिबोक के अनुभव से बेहतर कोई और बात नहीं हो सकती। पीटर एक बार शिमला से दिल्‍ली लौट रहे थे। किसी स्‍टेशन पर ट्रेन रूकी हुई थी। सचिन शतक के करीब थे और 98 रनों पर बल्‍लेबाजी कर रहे थे। ट्रेन के यात्री, रेलवे अधिकारी और ट्रेन में मौजूद हर कोई इंतजार कर रहा था कि सचिन अपना शतक पूरा करे। यह जीनियस बल्‍लेबाज भारत में समय को भी रोक सकता है।


पिछले दो दशक से बल्‍ला थामने वाले हर बच्‍चे का ख्‍वाब सचिन तेंदुलकर जैसे ही सफलता अर्जित करना ही रहा है। टीम इंडिया के कप्‍तान एम एस धोनी हो या फिर नजफगढ के सुल्तान वीरेन्‍द्र सहवाग, सभी सचिन के खेल को देखते हुए ही बडे हुए। बेंगलुरू में पहला टेस्‍ट खेल रहे चेतेश्‍वर पुजारा की उम्र तो महज एक साल थी जब सचिन तेंदुलकर ने अन्‍तर्राष्‍ट्रीय क्रिकेट में पर्दापण किया था। सचिन की खासियत यह रही कि सफलता के नित नए पैमाने बनाने के बावजूद उनके कदम जमीन पर ही रहे। यही वजह है कि केवल क्रिकेटर ही नहीं शटलर साइना नेहवाला, बाक्सिंग के दबंग विजेंदर हो, टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा या फिर पाकिस्‍तान के जाने माने पेनल्‍टी कार्नर विशेषज्ञ सुहैल अब्‍बास, हर कोई सचिन तेंदुलकर को आदर्श का मानता है।

16 नवंबर को सचिन इंटरनेशनल क्रिकेटिंग कैरियर के 21 साल पूरे कर लेंगे। सचिन जिस मुकाम पर है उस तक पहुंचना तो दूर की बात है, उसके बारे में सोचना भी किसी क्रिकेटर के लिए एक बडे पराक्रम से कम नहीं होगा। सचिन ने जब टेस्‍ट क्रिकेट शुरू किया था, लगभग उसी वक्‍त देश में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ था। देश ने पिछले 21 सालों में इस दौर के अच्छे और बुरे दोनों अनुभव देखे हैं। सचिन ने इन 21 सालों मे क्रिकेट की एकमेव सत्ता अपने हाथों में रखी है। देश ने वह दौर भी देखा है जब इंडिया का मतलब इंदिरा और इंदिरा का मतलब इंडिया माना जाता है राजनीति की भाषा में कहें तो आज क्रिकेट का मतलब सचिन हो गया है।

Tuesday, October 5, 2010

भारत एक खोज



मत कहो कि सर पे टोपी है, कहो सर पे हमारे ताज है.
आती थी एक दिवाली, बरसों में कभी खुशहाली
अब तो हर एक वार एक त्योहार है, ये उभरता-संवरता समाज है।
ये प्राण से प्यारी धरती, दुनिया की दुलारी धरती

ये अमन का दिया आंधियों में जला, सारी दुनिया को इस पे नाज़ है।
देख लो कहीं गम ना रहे, रौशनी कहीं कम ना रहे
सारे संसार की आंख हम पर लगी, अपने हाथों में अपनी लाज है।
यह पंक्तियां 1957 में बनी फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं है के एक गीत की है। इस गीत को शोमैन राजकपूर के पसंदीदा गीतकार और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित शैलेन्द्र ने लिखा था। यह गीत उस दौर में लिखा गया था, जब पूरी दुनिया एक नए मुल्क की ओर उमीदों भरी निगाहों से देख रही थी। यह पंक्तियां आज के दौर में भी मौजूं है। बस उसके मायने बदल गए है। दो सप्ताह पहले भी शैलेन्द्र के गीत की तरह सारे संसार की आंख हम पर लगी थी और अपने हाथों में ही अपनी लाज बचाने की जिम्मेदारी थी। बस नहीं थी तो उम्मीदें। हर ओर नाउम्मीदें थी। आर्थिक महाशक्ति की ओर बढ़ रहें मुल्क के कॅामनवेल्थ गेम्स के आयोजन में नाकाम होने की आशंका।

खेलगांव में गंदगी, डेंगू, आधे अधूरे निर्माण कार्य, सुरक्षा में चूक, भ्रष्टाचार, कई देशों की गेम्स से नाम वापस लेने की धमकी, भारत को मेजबानी सौंपने पर उठ रहे सवाल सुर्खियों में छाए हुए थे। दो सप्ताह पहले केवल दिल्ली के आसमान पर ही नहीं दिल्ली कॅामनवेल्थ खेलों पर भी संकट के बादल छाए हुए थे। दिल्ली के दामन पर लगे कलमाडी नुमा दाग इतने जिद्दी लग रहे थे कि कोई भी डिटर्जेंट इसे धोने का दावा नहीं कर सकता। तीन अक्टूबर की शाम को नयी दिल्ली में उद्घाटन समारोह की चकाचौंध ने सारे दाग धो दिए। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के नाम पर बने स्टेडियम में नये भारत की खोज हुई।

भारतीय संस्कृति में रचे बसे तीन घंटे के समारोह के जरिए दिल्ली ने अपना दम दिखा दिया। इस दबंगई के बाद दिल्ली से मुंह फेरने वाली दुनिया उसकी ओर टकटकी लगाए देख रही है। भारत ने अपनी शक्ति का अहसास करा दिया। 2006 के मेलबर्न गेम्स से जिसकी तुलना हो रही थी। 2012 के लंदन ओलंपिक से जिसे सबक सीखने की सलाह दी जा रही थी। दिलवालों की वह दिल्ली अब दुनिया के लिए पैमाना बन गई है। लंदन ओलंपिक के आयोजकों के माथे पर चिंता की लकीरें यूं ही नहीं है। जिस दिल्ली के लिए लंदन दूर की कौड़ी लग रही थी, उसी लंदन की पहुंच से दिल्ली काफी आगे निकल गई है। आधुनिक तकनीक और संस्कृति का भारतीय संगम पूरी दुनिया पर छा गया है।


भारत ने कूटनीति के मोर्चे पर भी अपनी दबंगई दिखा दी। यह पहला मौका था जब इतने बडे मंच पर भारतीयता की नुमाइंदगी मिजोरम का पहनावा कर रहा था। पड़ोसी मुल्क चीन के लिए संदेश साफ था कि पूर्वोत्तर भारत के लिए केवल जमीन का टुकड़ा भर नहीं बल्कि देश की साझा सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग है। वहीं पाकिस्तान सहित उपमहाद्वीप के देशों का दिल खोलकर स्वागत कर बड़े भाई का किरदार भी बखूबी अदा किया।

उद्घाटन समारोह अद्भुत, अतुल्य, अविश्सनीय और अविस्मरणीय रहा। लंदन से प्रकाशित फायनेशियल टाइम्स में स्टेंडर्ड चार्टड बैंक के निदेशक लिखते है
भारत की ताकत का आकलन सही तरीके से नहीं किया गया। आयोजन की सफल शुरूआत कर भारत ने अपनी ताकत दिखा दी है।
 अब जवाबदारी खिलाड़ियों पर है कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर पदक तालिका में भी भारत का दबदबा दिखाए। उद्घाटन समारोह में उन्हें जो सम्मान मिला है वह देश में क्रिकेटरों को भी नसीब नहीं होता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री खड़े होकर उनका अभिवादन किया है। देश का सर गर्व से उंचा उठा रहे इसकी जवाबदारी अब उन पर है।

Sunday, October 3, 2010

ओ यारो इंडिया बुला लिया



10 मर्इ 2010। राजधानी भोपाल में गरमी पूरे शबाब पर थी। पारा किसी तरह के समझौते के मूड में नहीं था। दोपहर बहुत सुस्त रफ्तार से शाम की ओर कदम बढ़ा रही थी। सवा चार बजे होंगे, जब एक फोन कॅाल ने खबरों की दुनिया में तेजी ला दी। कॅामनवेल्थ खेलों की बैटन के मध्यप्रदेश में आने के कार्यक्रम की घोषणा हो रही थी। खबर को ब्रेक करने के आधे घंटे के भीतर उसे फाइल भी कर दिया। सहयोगी रिपोर्टर विजय का दबाव था, जिसकी वजह से सारा काम जल्द खत्म हो गया। दबाव चाय पीने का था। इस दबाव के आगे झुकना यानि पारे से सीधे सीधे पंगा लेना था।


विरोध काम नहीं आया। चाय पीने के लिए दफ्तर से बाहर निकलना पडा। चाय की चुस्कियों के बीच विजय ने ही सबसे पहले बैटन थामने की चर्चा छेड़ी। यह ख्याल रोमांचित कर देने वाला था। अभी तक बैटन का जिक्र आते ही सबसे पहले दूरदर्शन की २२ साल पुरानी डाक्यूमेंट्री टॉर्च ऑफ फ्रीडम की तस्वीर ही नज़र आती है। मिले सुर मेरा तुम्हारा के दौर में बनी इस डाक्यूमेंट्री में देश की नामी खिलाडियों को मशाल थामे दिखाया गया था। हिरनों के बीच कुलांचे भरती पीटी उषा या फिर तेज बारिश में मशाल लेकर दौड़ते सुनील गावस्कर। नवाब पटौदी के साथ नन्हीं सोहा अली तो दीपिका पादुकोण के पिता और बैंडमिंटन के सितारा खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण भी  नज़र आते हैं।




बहरहाल, यह ख्याल जितनी तेजी से आया, खबरों की दौड़भाग में उतनी ही तेजी से पीछे भी छूट गया। इसी दौरान राजधानी से नाता टूटा और मुकाम एक बार फिर मध्यप्रदेश की खेल राजधानी इंदौर में जमा लिया। भोपाल में खेल मैदान के जितना करीब रहा, इंदौर में उतनी ही दूरी होती गर्इ। इन सबके बीच बैटन के मध्यप्रदेश में आमद देने की घड़ी नज़दीक आ पहुंची। बैटन के मध्यप्रदेश पहुंचने के दो दिन पहले पता चला कि बैटन थामने वालों की सूची में मेरा नाम भी शामिल है। यह दो दिन बड़े इत्तफाक लिए हुए रहे। बगैर किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अचानक कवरेज के लिए रतलाम जाने का आदेश हुआ। मौका भी ख़ास था, क्वींस बैटन मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश करने रही थी। बारिश की बूंदों और धूप की अठखेलियों की इन्द्रधनुषी छटां के बीच १५ सितंबर कि शाम को क्वींस बैटन मध्यप्रदेश पहुंची। इस ऐतिहासिक क्षणों का साक्षी बना, लेकिन बैटन थामने का मौका अभी नहीं आया था।




आखिरकार, ख़बर ब्रेक करने के 128 दिनों बाद बैटन को थामने का पल आया। 70 देशों, लगभग एक लाख 85 हजार किलोमीटर का सफर तय कर यह बैटन मेरे हाथों में आर्इ थी। बैटन, जिसे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने ओलंपिक गोल्ड मेडल अभिनव बिन्द्रा को सौपा था। एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले इस मुल्क में केवल पांच हज़ार चुनिंदा लोगों को बैटन थामने के लिए चुना गया था। उस बैटन को थामकर इंदौर की सड़कों पर दौड़ना किसी ख्वाब के सच होने जैसा बिलकुल नहीं है, क्योंकि यह कल्पनाशीलता से परे था।



खेल को छोड़ने के नौ साल और मध्यप्रदेश के सर्वोच्च खेल सम्मान विक्रम अवार्ड मिलने के आठ साल बाद सात समंदर पार से आर्इ बैटन को थामने का मौका मिला था। बकायदा इसके लिए तीन बजकर चालीस मिनिट का समय मुकर्रर हुआ था। अपने निर्धारित समय के एक घंटे पहले ही बैटन इंदौर पहुंच गर्इ। इस खास इवेंट को कवर कर रहे मेरे दो बेहद अज़ीज़ मित्र राहुल और समीर यदि समय पर इसकी सूचना नहीं देते तो बैटन छूटना तय थी। किसी तरह दौड़ते भागते बैटन को थाम ही लिया। उम्मीद है कि इसी तरह दौड़ते भागते ही सही हम कॅामनवेल्थ खेलों की सारी तैयारियों को अंतिम समय तक पूरा करते हुए इस एक सफल आयोजन बनाएंगे। आमीन।