पालोमी घटक.... नाम तो सुना होगा। टेबल टेनिस में भारत की सितारा खिलाडी। हाल ही में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में एक सिल्वर और एक ब्रांज पदक जीता है, बंगाल की इस बाला ने। पश्चिम बंगाल सरकार की घोषणा के मुताबिक इस उपलब्धि पर उन्हें एक फ्लेट मिलना चाहिए। फ्लेट तीन है और कॉमनवेल्थ गेम्स में बंगाल से पदक जीतने वाले खिलाडि़यों की संख्या ग्यारह, बड़ी नाइंसाफी है। ऐसे में पालोमी का नंबर नहीं लग पाया। अब फ्लेट नहीं मिलने से यह मोहतरमा इतनी नाराज है कि उन्होंने राष्ट्रीय खेलों में अपने राज्य की नुमाइंदगी ही नहीं करने की धमकी भी दे डाली है।
पालोमी से किसी तरह की हमदर्दी हो इसके पहले यह जान लेना जरूरी है कि उन्हें फ्लेट क्यों नहीं मिल पाया। राज्य सरकार ने फ्लेट की कमी को वजह बताया है। सरकार ने बंगाल ओलंपिक एसोसिएशन की सिफारिश पर फ्लैटों का आवंटन कर दिया। वेटलिफ्टिंग में रजत पदक जीतने वाले सुखन डे, 400 मीटर रिले में कांस्य पदक जीतने वाले रहमतउल्ला और तैराकी में कांस्य पदक जीतने वाले प्रशांत कर्माकर को प्राथमिकता के आधार पर यह फ्लैट दिए गए है। रहमतुल्ला के पिता कारपेंटर है तो सुखन डे और प्रशांत की आर्थिक हालत भी ठीक नहीं है। वह सबसे ज्यादा जरूरतमंद थे इसलिए उन्हें वरीयता दी गई। पालोमी खुद पेट्रोलियम बोर्ड में है और उनके मंगेतर सौम्यदीप राय भी पेट्रोलियम बोर्ड की सेवाओं में है। देश की नंबर एक टेबल टेनिस खिलाड़ी का यह रवैया इसलिए दिल तोड़ देने वाला है।
पालोमी सरीखा रवैया भारतीय खेल इतिहास की रवायत बन चुका है। हाल ही में ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, पालोमी के पहले सानिया मिर्जा कुछ ऐसा ही रवैया दिखा चुकी है, जब उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के अपमान के मामले में फंसने के बाद देश के लिए ही नहीं खेलने की धमकी दी थी। ट्रायल के नाम पर कुछ ऐसी ही दबंगई ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिन्द्रा भी दिखा चुके है। लिएंडर पेस और महेश भूपति का देश हित के से ज्यादा व्यक्तिगत हित को को अहमियत देना किसी से छुपा नहीं है। देश में क्रिकेट के इतर खेलों में यह बीमारी पुरानी है। यह घाव समय समय पर पामौली जैसी खिलाडि़यों की करतूतों की वजह से रिसता रहता है।
इस बात से किसी को इंकार नहीं है कि इन खिलाडि़यों की सफलता में सरकार का योगदान कम इनकी
व्यक्तिगत मेहनत, समर्पण और परिवार से मिले समर्थन का अंश ज्यादा है। फिर भी अब तस्वीर बदल रही है। सरकार अब खेलों के लिए भी अपना खजाना खोल रही है। अभी कॉमनवेल्थ गेम्स में ही सरकार ने खिलाडि़यों पर साढ़े छह सौ करोड़ रूपयों की भारी भरकम राशि खर्च की है। मुल्क को अब क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों में भी खिलाडि़यों की सफलता पर फ़ख्र होता है। कॉमनवेल्थ गेम्स में साइना नेहवाल के फायनल मुकाबले पर करोड़ों भारत वासियों की निगाहें टिकी हुई थी तो हॉकी फायनल मुकाबले के टिकिट ब्लैक में भी नहीं मिल रहे थे। देश बदल रहा है लेकिन खिलाडि़यों में खेल भावना और देश प्रेम की भावना की बजाए व्यक्तिगत फायदा महत्वपूर्ण बना हुआ है।

क्रिकेट को कोसने वाले दीगर खेल के खिलाडि़यों को क्रिकेटरों से जरूर सबक लेना चाहिए। क्रिकेटर कभी ऐसी
