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Monday, August 30, 2010

लग गई ना मिर्ची

लग गई ना मिर्ची, अमिताभ बच्‍चन इन दिनों इसी टैग लाईन का प्रयोग चैंपियंस लीग टी20 के प्रमोशन के लिए कर रहे है। अमिताभ बच्‍चन ऐसे ही एक प्रमोशन में हर्शल गिब्‍स पर फायनल में हारने के‍ लिए कटाक्ष करते है। बिग बी का यह कटाक्ष टीम इंडिया पर बिलकुल सटीक बैठता है कि यूं तो आपकी टीम तोप है लेकिन फायनल में हमेशा लुढ़क जाती है। श्रीलंका में एमएस धोनी की टीम इंडिया एक बार फिर अहम मुकाबले में चारों खाने चित हो गई। यह हार इसलिए भी ज्‍यादा दुखदाई है कि यह पूरी टीम की विफलता है। श्रीलंका में गेंदबाजी से लेकर बल्‍लेबाजी तक सारी कमजोरियां एक साथ खुलकर सामने आ गई। 

हार जीत खेल का हिस्‍सा है लेकिन भारतीय टीम की हार दिल तोड़ देने वाली है। धोनी बिग्रेड ने श्रीलंका में मुकाबला करने के बजाए आत्‍मसमर्पण कर दिया। टीम इंडिया की यह हार जंग का ऐलान कर मैदान ए जंग में घुटने टेककर युद्धबंदी बनने जैसी है। मैदान में खिलाडि़यों में जीत के जज्‍बे और दृढ़ इच्‍छाशक्ति का अभाव साफतौर पर झलक रहा था। श्रीलंका में त्रिकोणीय श्रृंखला युवा खिलाडि़यों को वर्ल्‍ड कप के पहले खुद को साबित करने का एक अच्‍छा प्‍लेटफार्म था। श्रृंखला के बाद भी युवा खिलाडी इसी प्‍लेटफार्म पर है और वह सफलता की ट्रेन पर सवार होने का मौका गंवा चूके है।


श्रीलंका में भारतीय बल्‍लेबाजों का प्रदर्शन हजारों मील दूर इंदौर में मॉनसून जैसा रहा। इंदौर इस मॉनसून में अमूमन पूरे समय बादलों के आगोश में रहा। बादलों ने उम्‍मीद तो बहुत जगाई लेकिन बरसे नहीं। श्रीलंका में भारतीय युवा बल्‍लेबाजा का मिजाज भी कुछ ऐसा ही रहा। टीम इंडिया की यंग बिग्रेड ने उम्‍मीदें के बादलों को डेरा तो खूब जमाया लेकिन रनों के रूप में यह बादल बरस नहीं पाए। गिरते पड़ते और वीरेन्‍द्र सहवाग की मेहरबानी से फायनल में पहुंची टीम को इसका खामियाजा भी भुगतना पडा। टेस्‍ट सीरिज में श्रीलंका से हिसाब बराबर करने वाली इस टीम को त्रिकोणीय श्रृंखला में खिताब के बगैर खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। 

आईपीएल में केकेआर कोलकाता नाइट राइडर्स का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। टीम इंडिया के केकेआर यानि कोहली, कार्तिक और रोहित शर्मा भी नाकाम साबित हुए। मुंबई, दिल्‍ली और चेन्‍नई देश के तीन सबसे बड़े महानगरों की नुमाइंदगी करने वाले इन तीन युवा खिलाडि़यों को भरपूर मौके मिल रहे है। तीनों को भविष्‍य का आधारस्‍तंभ माना जा रहा है। भविष्‍य का तो पता नहीं लेकिन अभी तो इन तीनों के किले में विपक्षी गेंदबाज आसानी से सेंधमारी कर रहे है। क्रिकेटिंग दुनिया की चकाचौंध ने शायद इनके खेल की चमक फीकी कर दी है और वह अपनी प्रतिभा के साथ न्‍याय करते नजर नहीं आ रहे है। 

युवराज सिंह का राज अब क्रिकेट जगत से खत्‍म होता दिख रहा है। युवराज सिंह का चोटों से जुझना और मैदान पर असफलता का दौर जारी है। कप्‍तान के आशीर्वाद उन्‍हें मिला हुआ है और वन डे टीम में अब भी वह जगह बनाए हुए है। टेस्‍ट टीम से सौरव गांगुली की विदाई युवराज प्रेम की वजह से हुई थी। गांगुली भी अब टेस्‍ट टीम में नहीं है और युवराज भी टेस्‍ट टीम में वापसी के लिए संघर्ष कर रहे है। वन डे में पिछले एक साल से उनका बल्‍ला लगभग खामोश है। अब वक्‍त आ गया है कि युवराज को लेकर कड़ा फैसला लेने का। 

बल्‍लेबाज तो बल्‍लेबाज गेंदबाजों ने भी टीम को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। ईशांत शर्मा की असफलता का दौर जारी है। आईपीएल में उनकी गेंदों पर सबसे ज्‍यादा चौके जड़े गए थे। इसके बावजूद वह सुधरने का नाम नहीं ले रहे है। आशीष नेहरा, मुनफ पटेल और प्रवीण कुमार भी टुकड़े टुकड़े में अच्‍छा प्रदर्शन कर रहे है। स्पिन गेंदबाजी में तो कोई भी गेंदबाज विपक्षी टीम के लिए खतरा बनता ही नहीं दिख रहा है। इसके चलते पार्ट टाइम स्पिनरों से भरोसे ही काम चलाया जा रहा है। यह प्रयोग हर बार सफल सा‍बित नहीं होता है और समय समय पर टीम इसका खामियाज भुगत भी रही है। 

2007 से भारतीय टीम में युवा खून को मौका दिए जाने की पैरवी की जाती रही है। धोनी युग में टीम के कई वरिष्‍ठ खिलाडि़यों की छुट्टी हुई और युवाओं को बंपर मौके मिलते रहे है। टी20 वर्ल्‍ड कप के पहले संस्‍करण को छोड़ दे तो इन युवाओं ने निराश ही ज्‍यादा किया है। श्रीलंका में भी सचिन तेंदुलकर की गैरमौजूदगी में वीरेंद्र सहवाग ही टीम के सबसे बुजुर्ग खिलाड़ी थे। यदि सहवाग नहीं होते तो टीम फायनल में भी नहीं होती। 


आखिर में बात आर अश्विन और सौरभ तिवारी की। कप्‍तान का इन दोनों खिलाडि़यों को मौका न दिया जाना समझ से परे है। टीम को एक पिंच हीटर की सख्‍त जरूरत थी और सौरभ तिवारी उस जगह पर फिट बैठते है। आर अश्विन को लेकर एमएस की बेरूखी ज्‍याद चौंकाने वाली है। आईपीएल में चेन्‍नई सुपर किंग्‍स के लिए यही अश्चिन धोनी के सबसे मारक हथियार थे। धोनी तमिलनाडू के इस उच्‍चे कद के ऑफ स्पिनर को मुरलीधरन से ज्‍यादा तवज्‍जों देते थे। अश्चिन को एक भी मुकाबले में मौका न देना धोनी की रणनीतिक कमजोरी को उजागर करता है। जडेजा की असफलता का अन्‍तहीन सिलसिला खत्‍म नहीं हो रहा है। इसके बावजूद उन पर धोनी की विशेष कृपा समझ से परे है। वर्ल्‍ड कप दूर नहीं है और उपमहाद्वीप की पिचो पर यह प्रदर्शन और रणनीतिक चूक खतरे की घंटी है।

Monday, August 16, 2010

यह कैसा "विक्रम"


मध्‍यप्रदेश सरकार ने शुक्रवार को वर्ष 2010 के लिए प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मानों का ऐलान कर दिया। खिलाडि़यों के सम्‍मानित होने की यह घोषणा मुझे फ्लैश बैक में ले गई। सावन के इस मौसम में 2002 अप्रैल की वह तपती दुपहरिया याद आ गई जब प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मान विक्रम अवार्ड के लिए चुने जाने की ख़बर मिली थी। अवार्ड के लिए चुने जाने की उम्‍मीद तो थी फिर भी फोन पर मिली सूचना पर सहसा यकीन नहीं हुआ। दो तीन जगहों पर क्रास चेक करने पर तसल्‍ली हुई। 21 शताब्‍दी में घोषित पहले विक्रम पुरस्‍कारों की सूची में मेरा नाम सबसे उपर था। उस समय हर साल पुरस्‍कारों का ऐलान नहीं होता था।  दो सालों के पुरस्‍कारों का ऐलान एक साथ हुआ था। मेरे लिए दोहरी खुशी की बात यह थी कि दोनों ही साल खो खो खिलाडि़यों ने इस सूची में शीर्ष स्‍थान हासिल किया था। 2001 में यह पुरस्‍कार खेल के मैदान पर मेरे गुस्‍से को ठंडा करने में फ्रीजर की भूमिका निभाने वाले गजेन्‍द्र देशपांडे को मिला था।




पुरस्‍कार मुझे उस वक्‍त मिला था जब नौकरी के लिए भोपाल बसना पड़ा था। इसके लिए नवंबर 2001 में पंजाब नेशनल गेम्‍स को भी बीच में ही छोड़ना पडा था। शहर में बदलाव का वह दौर खेल के मैदान से जुदाई का शुरूआती दौर था। इसके पहले खेल के मैदान से एक पल की जुदाई बर्दाश्‍त नहीं होती थी, फिर धीरे धीरे खेल के लिए एक मिनिट निकालना चुनौती बन गया है। ऐसे करते करते आठ साल बीत गए। इस दौरान खेल से नाता लगभग टूट ही गया, लेकिन दिल में कही न कही यह बात हमेशा कटोचती रही। यदाकदा खेले गए क्रिकेट मुकाबलों को छोड़ दिया जाए तो खेल के मैदान से केवल और केवल ख़बरों के माध्‍यम से ही जुड़ा रहा। 


इन आठ सालों में खेल से दूरी और सरकार की बेरूखी जरूर सताती रही। खासतौर पर उन साथी खिलाडि़यों के लिए जिन्‍हें 1997 से 2007 के बीच प्रदेश के सर्वोच्‍च खेल सम्‍मान के लिए चुना गया था। इन दस सालों में लगभग 100 खिलाड़ी थे जिन्‍हें सरकार ने विक्रम अवार्ड से नवाजा तो सही लेकिन नियमों के तहत सरकारी नौकरी नहीं दी। इस वजह से विक्रम अवार्ड से सम्‍मानित खिलाड़ी जो प्रदेश का गौरव होना चाहिए थे वह गुमनामी के अंधेरे में खो गए। उन्‍होंने खेल छोड़ दिया लेकिन सरकार उनकी भावनाओं से खेलती रही। 


दस सालों में कभी खिलाडि़यों की पूछपरख नहीं हुई। सरकारी नुमाइंदों का रवैया तो ऐसा था मानो अवार्ड देकर खिलाडि़यों पर अहसान किया गया है। इस वजह से प्रदेश में धीरे धीरे खिलाडि़यों की पौध सूखती गई। सरकारी बेरूखी की वजह से ऐसे खिलाडि़यों के पास खेल को अलविदा कहने के अलावा कोई विकल्‍प नहीं बचा। आज हालत यह है कि प्रदेश के कई ऐसे "विक्रम" है जो आरटीओ एजेंट बनकर या फिर ऐसी जगहों पर नौकरी कर रहे है जहां दो जुन की रोटी का जुगाड़ भी टेढ़ी खीर है। 

सरकार को अब भी ऐसे होनहार खिलाडि़यों की परवाह नहीं है और विक्रम अवार्ड लौटाने जैसे फैसले को भी अनसुना कर दिया गया। न तो कांग्रेस सरकार और नहीं बीजेपी सरकार ने इस और ध्‍यान दिया। खिलाडि़यों की पुकार को अनुसना कर दिया क्‍योंकि खिलाड़ी वोट बैंक नहीं होते। वह प्रदेश और देश का नाम भले ही रोशन करते रहे हो लेकिन उनकी उपलब्धियों की रोशनी से नेताओं के सिंहासन रोशन नहीं होते। अब पिछले दो सालों से जरूर विक्रम अवार्डी को नौकरी मिलने शुरूआत हो गई है लेकिन इसके पहले नेताओं की बेरूखी की वजह से प्रदेश में खिलाडि़यों की एक पूरी पीढ़ी खत्‍म हो गई। 


मध्‍यप्रदेश सरकार इन दिनों महिला और पुरूष हॉकी पर जमकर पैसा लुटा रही है। ओलंपिक हो या फिर कोई अन्‍य अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍पर्धा में उपलब्धि हासिल करने वाले खिलाड़ी उनके लिए भी मध्‍यप्रदेश सरकार खजाना खोलकर वाहवाही बंटोर रही है। खेल के जानकार जानते है कि इससे मध्‍यप्रदेश के खिलाडि़यों का रत्‍ती भर भी फायदा नहीं होना है। ऐसे खिला‍ड़ी जिनका प्रदेश से कोई लेना देना नहीं है और जिनके लिए सब दूर से मदद से हाथ उठ रहे है उन्‍हें मदद देना या सम्‍मनित करने के औचित्‍य पर सवाल खड़े होते रहे है। खिलाडि़यों को नौकरी देकर उन्‍हें खेल से जोड़कर रखने पर सरकार को बजट की चिंता सताती है लेकिन जहां वाहवाही मिलती है वहां पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। हमारे नेताओं को चिंता है कि चीयर लीडर्स खेल के मैदान में होना चाहिए या नहीं। हमारे नेता इसमें सर खफा रहे है कि खेल संगठनों पर काबिज कैसे हुआ जाए। मध्‍यप्रदेश के ये "विक्रम" खेल के मैदान पर भले ही पराक्रम दिखाते हो लेकिन नेताओं के आगे यह सारे धुरंधर शिकस्‍त खा बैठे।



यह पोस्‍ट एक फुटबॉल मैच खेलकर लौटने के बाद लिख रहा हूं। पसीने में तरबतर किट जिसे लंबे समय से मिस कर रहा था आज सुखद अहसास दे रही थी। वह बारिश में कीचड़ में खेलना, अंपायर से झगड़ना, मुकाबले के दौरान साथी खिलाडि़यों से गाली गलौज। आज भी टीवी पर कोई बेहद रोमांचक मुकाबला देखता हूं तो पांवों में हलचल होने लगती है। मुकाबलें के पहले राष्‍ट्र गान हो या फिर जीत की खुशी और रोमांचक मुकाबले में धड़कन का रूक सा जाना, नेताओं को इससे क्‍या वास्‍ता। उनकी धड़कन तो वोटों की गिनती से ही दौड़ती और थमती है। 2010 के विक्रम, एकलव्‍य और विश्‍वामित्र अवार्ड के चुने जाने वाले खिलाडि़यों और प्रशिक्षकों को बधाई।

Wednesday, August 11, 2010

ताज कोल्‍हापुरी

कोल्‍हापुर, कर्नाटक की सीमा से सटा महाराष्‍ट्र एक शहर। ठेठ मराठी संस्‍‍कृति का प्रतिनिधित्‍व करने वाला यह शहर किसी पहचान का मोहताज नहीं है। कोल्‍हापुर पर देवी महालक्ष्‍मी और विष्‍णु भगवान की कृपा मानी जाती है तो कहां यह भी जाता है देश में प्रति व्‍यक्ति सबसे ज्‍यादा मर्सिडीज कार इसी शहर में है। चटपटा मांसाहारी भोजन हो या फिर खास तरीके से तैयार की गई चप्‍पल, कोल्‍हापुर शहर से जुड़ी खासियतों की फेहरिस्‍त काफी लंबी है। देश के सबसे समृद्ध शहरों में शुमार इस शहर की पहचान में अब वर्ल्‍ड चैंपियन का ताज भी जुड गया है। विश्‍व शूटिंग चैंपियनशिप में स्‍वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला निशानेबाज तेजस्विनी सांवत भी इसी शहर की नुमाइंदगी करती है।


कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में भ्रष्‍टाचार और महिला खिलाडि़यों के यौन उत्‍पीड़न की वजह से देश में खेल और खिलाड़ी गलत वज़हों से सुर्खियों में बने हुए है। ऐसे में तेजस्विनी की कामयाबी ने खिलाडि़यों के मुरझाए चेहरों पर खुशियां लौटा दी है। इसके साथ ही तेजस्विनी मिसाल बन गई है कि किस तरह साधनों का अभाव और पारिवारिक दिक्‍कतों का मुकाबला कर भी दुनिया फतह की जा सकती है। तेजस्विनी न तो किसी समृद्ध परिवार से है और नही सफलता का रास्‍ता उसके लिए आसान रहा है। इसके बावजूद इस कोल्‍हापुरी बाला ने वह कारनामा कर दिखाया है जो अब तक कोई भी भारतीय महिला निशानेबाज नहीं कर पाई।


तेजस्विनी के शहर कोल्‍हापुर को सांस्‍कृतिक विरासत को सहेजने की वजह से कलापुर भी कहां जाता है। भारत की पहली फिल्‍म राजा हरीशचन्‍द्र की परिकल्‍पना यही रची गई थी। रील लाइफ का आगाज जहां हुआ वही कि तेजस्विनी की रियल लाइफ की कहानी भी फिल्‍मों की तरह उतार चढ़ाव भरी रही। फिल्‍म की किसी नायिका की तरह तेजस्विनी ने सफलता का स्‍वाद चखने के पहले वक्‍त के कई थपेड़े झेले है। कर्ज पर रायफल लेकर उन्‍होंने अभ्‍यास किया तो जब सफलता का वक्‍त आया तो 1971 की लड़ाई में भारतीय नेवी के हिस्‍सा रहे पिता रवीन्‍द्र सांवत नहीं रहे। हालात ने हर बार तेजस्विनी को तोड़ने की कोशिश की लेकिन बजाए शिकवे शिकायत करने के तेजस्विनी फिल्‍म की जाबांज पुलिस अधिकारी की तरह इस निशानेबाज ने हर चुनौती को करारा जवाब दिया।


तेजस्विनी के शहर यानि खेलों की राजधानी भी। खासतौर पर यहां कुश्‍ती और भारतीय खेलों को लेकर खासा क्रेज रहता है। ऐसे शहर में निशानेबाजी जैसे खेल को चुनना और फिर शीर्ष तक पहुंचना कड़ी तपस्‍या के बगैर संभव नहीं है। तीन बहनों में सबसे बड़ी तेजस्विनी को जिंदगी ने कई बार ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया जहां निशानेबाजी छोड़ने के अलावा कोई विकल्‍प उन्‍हें नजर नहीं आ रहा था। 13 साल की उम्र में एनसीसी शिविर से निशानेबाजी शुरू करने वाली तेजस्विनी को शूटिंग रेंज के साथ साथ जिंदगी से भी कदम कदम पर संघर्ष करना पडा़। सुर्खियों और ग्‍लैमर से दूर दोनों मोर्चों पर गुमनाम रह कर तेजस्विनी संघर्ष करती रही और आज दुनिया उनकी सफलता की चमक देख रही है।

दरअसल तेजस्विनी की मां सुनीता क्रिकेट की खिलाड़ी रही है। इसलिए वह अच्‍छे से जानती है कि मुसीबत के छक्‍के छुडाने के पहले उसकी चुनौती का सामना संयम से किया जाता है। मां से मिली सीख और कभी न हार मानने के जज्‍बे ने तेजस्विनी को भी मजबूत बना दिया। पिता की मौत का गम हो या फिर आर्थिक दिक्‍कतें तेजस्विनी ने कई बार खेल से तौबा करने का मन बना लिया। ऐसे मुश्किल वक्‍त में सुनीता मजबूती से खड़ी रही। तेजस्विनी की सफलता की और बढ़ाए हर कदम पर मां का साया साथ नजर आएगा। अब जब तेजस्विनी वर्ल्‍ड चैपिंयनशिप जीत गई तो वह गर्व से कह सकती है कि उसके पास मां है।


देश में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग हो रही है। पुरूषों के समान उन्‍हें अधिकार देने की बात कही जा रही है। इन सारे राजीनितिक झमेले के बीच सायना नेहवाल, तेजस्विनी सांवत जैसी खिलाडी है जिन्‍होंने अपने बलबूते पर सारी मुश्किलों को दूर कर सफलता हासिल की है। उन्‍हें न तो विरासत में कुछ मिला और नहीं शार्ट कट से वह दुनिया के मंच पर सबसे उपर खड़ी है। वे मिसाल बन रही है उभरते भारत की जो दुनिया को बता रही है कि हम किसी से कम नहीं।

Sunday, August 8, 2010

ये कौन चित्रकार है

वेंगीपुराप्‍पु वेंकटा साई लक्ष्‍मण अंग्रेजी वर्णमाला के 27 अक्षरों को प्रयोग कर यह नाम बना है। यह नाम जितना स्‍पेशल और लंबा है उतना ही स्‍पेशल और उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्‍त वाला वह शख्‍स है जिसे इस नाम से जाना जाता है। क्रिकेट प्रेमी उसे बजाए इस नाम के वीवीएस लक्ष्‍मण यानि की वेरी वेरी स्‍पेशल लक्ष्‍मण के नाम से पहचानते है। लक्ष्‍मण एक बार फिर टीम इंडिया के लिए वेरी वेरी स्‍पेशल साबित हुए है। विपरीत परिस्थितियों में जमाए उनके शतक की बदौलत धोनी की सेना लंका की धरती पर शिकस्‍त खाने से बच गई।

वीवीएस लक्ष्‍मण को यूं तो हमेशा 281 रनों की पारी के लिए याद किया जाता है। कोलकाता में आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ फॉलोआन खेलते हुए लक्ष्‍मण ने यह पारी खेली थी। यह पारी अब तक किसी भी भारतीय बल्‍लेबाज द्वारा खेली गई सबसे बेहतरीन पारी मानी जाती है। हालांकि लक्ष्‍मण ने कई बार ऐसी यादगार पारियां खेली है। कोलंबो टेस्‍ट की चौथी पारी में जमाया उनका शतक इसी कड़ी में शुमार होने वाली एक ओर पारी है।

विदेशी धरती पर लक्ष्‍मण ने खूब रन बनाए लेकिन उन्‍हें सबसे ज्‍यादा रास आस्‍ट्रेलियाई गेंदबाज ही आए। आस्‍ट्रेलियाई गेंदबाजों के खिलाफ उन्‍होंने जी भर कर रन बटोरें। इसके बावजूद उनकी क्षमताओं और का‍बिलियत को हमेशा कम करके आंका गया। दरअसल वह जिस दौर में भारतीय टीम का हिस्‍सा बने वह दौर सचिन तेंदुलकर और राहुल द्रविड का दौर रहा। इसके बाद सौरव गांगुली और फिर एम एस धोनी की लोकप्रियता की वजह से यह स्टाइलिश बल्‍लेबाज वह सम्‍मान नहीं पा सका जिसका वह हकदार है। उन्‍हें हर बार अपनी काबिलियत साबित करनी पड़ी। टीम इंडिया को नंबर एक का ताज दिलाने में उनका भी अहम योगदान रहा लेकिन वह टीम में अनसंग हीरो की तरह ही रहे।


एक पर एक फ्री की तरह भारतीय टीम में शामिल होने के साथ ही एक अरब लोगों की उम्‍मीदों का बोझ भी फ्री में आप के कंधों पर आ जाता है। ऐसे में यदि सचिन, द्रविड और सहवाग जैसे दिग्‍गज पैवेलियन लौट जाए तो विरोधी टीम के गेंदबाज गेंद की बजाए तोप से गोले बरसाते नजर आते है। लक्ष्‍मण ऐसे हालात में विपक्षी टीम के सामने अंगद के पांव की तरह जम जाते है। जैसे आंच में तपकर सोना कुंदन बनता है वैसे ही दबाव की तपिश में लक्ष्‍मण को खेल निखरता है। विरोधी टीम जितना हावी होती है उतना ही लक्ष्‍मण का खेल परवान चढ़ता जाता है। लक्ष्‍मण को भी मानो बहाव के विपरीत कश्‍ती चलाने में ही ज्‍यादा मजा आता है।


वीवीएस लक्ष्‍मण की कलात्‍मक बल्‍लेबाजी को देखना अपने आप में एक यादगार अनुभव है। कोई चित्रकार जैसे किसी तस्‍वीर को बनाता है उसी तरह वीवीएस की पारी संजी संवरी रहती है। वह जब बल्‍लेबाजी करते है तो बल्‍ला चित्रकार की कूची और मैदान कैनवास सा नजर आता है। चित्रकार जैसे कही बेहद हल्के स्‍ट्रोक्‍स का इस्‍तेमाल अपनी कलाकृति में करता है कुछ उसी तरह लक्ष्‍मण का बल्‍ला स्पिन गेंदबाज के खिलाफ करीने से लेट कट या ऑन ड्राईव लगाता नजर आता है। चित्रकार कही तीखे चटक रंग के इस्‍तेमाल से कलाकृति को चार चांद लगाता है तो उसी तरह तेज गेंदबाजों के खिलाफ बेधड़क जमाए लक्ष्‍मण के पुल शॉटस उनकी बल्‍लेबाजी को नयी उंचाईयों पर ले जाते है।

तीन साल पहले सौरव गांगुली की विदाई के बाद गोल्‍डन फैब फोर में अगला निशाना वीवीएस लक्ष्‍मण को माना जा रहा था। 2008 में धोनी के नेतृत्‍व में युवाओं को मौका देने की बात जोर पकडने लगी थी। लक्ष्‍मण की जगह युवराज की पैरवी की जा रही थी। लक्ष्‍मण ने विचलित हुए बगैर अपना स्‍वाभाविक खेल जारी रखा। तीन साल बाद भी लक्ष्‍मण टीम के मुख्‍य आधार स्‍तंभ और जीत के शिल्‍पकार बने हुए है। वहीं युवराज 12वें खिलाड़ी है।


वीवीएस लक्ष्‍मण अपने माता पिता की तरह डाक्‍टर बनना चाहते थे। इसके लिए उन्‍होंने डाक्‍टरी की पढाई भी शुरू कर दी। 17 साल की उम्र में लक्ष्‍मण धर्मसंकट में फंस गए थे। उन्‍हें डाक्‍टरी की पढ़ाई या क्रिकेट दोनों में से एक को चुनना था। लक्ष्‍मण ने स्‍टेथस्‍कोप थामने की बजाए बल्‍ला थामने का फैसला लिया। लक्ष्‍मण के शब्‍दों में मैंने बतौर क्रिकेटर खुद को साबित करने के लिए पांच साल की समय सीमा तय की। यदि मैं राष्‍ट्रीय टीम में जगह बनाने में कामयाब नहीं होता तो डाक्‍टर बन जाता। वीवीएस ने जो लक्ष्‍मण रेखा तय की थी उसके खत्‍म होने तक वह दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ टेस्‍ट मैच में पदार्पण कर चुके थे। हालांकि यह बात भी उतनी ही सच है कि जितना धैर्य, समर्पण, नज़ाकत और आत्‍मविश्‍वास लक्ष्‍मण में है यदि वह डाक्‍टरी पेशे में भी होते तो वहां भी खूब नाम और सम्‍मान कमाते।

Monday, August 2, 2010

बुलेटप्रूफ



भारतीय सैन्‍यबल इस वक्‍त अस्‍सी हजार से ज्‍यादा बुलेटप्रूफ जैकेट की कमी से जुझ रहे है। सरकार की ओर से बकायदा संसद में आधिकारिक तौर पर यह जानकारी दी गई है। मुंबई आतंकी हमले के वक्‍त भी सुरक्षाबलों के पास मौजूद बुलेटप्रूफ जैकेट की कमजोरियां सामने आई थी। देश पर हुए सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद से ही बुलेटप्रूफ जैकेट को लेकर चिंताए बढ़ती जा रही है। बुलेटप्रूफ जैकेट को ले‍कर चिंता स्‍वाभाविक भी है लेकिन टीम इ‍ंडिया के लिए फिक्र की कोई बात नहीं है। टीम इंडिया के पास सचिन तेंदुलकर के रूप में एक ऐसा बुलेटप्रूफ जैकेट है जो 21 साल से हर मुसीबत का बखूबी सामना करता आया है।




मेड इन मुंबई सचिन तेंदुलकर भारतीय टीम के लिए संकटमोचक है। टीम जब भी मुसीबत में होती है तो साथी खिलाड़ी ही नहीं एक अरब से ज्‍यादा लोगों की उम्‍मीदें केवल और केवल सचिन पर टिकी होती है। श्रीलंका दौरे पर भी सचिन ही टीम इंडिया के लिए सुरक्षा कवच साबित हो रहे है। गॉल टेस्‍ट में वह शतक से चूके लेकिन टीम इंडिया को पारी की हार से वह बचाकर ले गए थे। मलिंगा, मेंडिस और मुरलीधरन के एम फेक्टर के हर तीर की धार सचिन के बल्‍ले से टकरा कर कुंद होती गई। कोलंबो में जब भारतीय टीम श्रीलंका के विशालकाय स्‍कोर के सामने मुश्किल में फंस गई उस वक्‍त सचिन ने ही टीम को मुसीबत के भंवर से सुरक्षित बाहर निकाला। अजीमों शान शहंशाह ने अपने टेस्‍ट कैरियर का पांचवा दोहरा शतक जमाया। क्रिकेट के सरताज ने अपनी पारी से टीम इंडिया के नंबर वन के ताज को बचा लिया।



37 साल के सचिन तेंदुलकर इन दिनों एक विज्ञापन में नजर आ रहे है। इस विज्ञापन की थीम है जो अंदर से है सॉलिड वही फेवरेट है। सचिन के जिंदगी का फलसफा भी कुछ ऐसा ही है। कोलंबो में दोहरा शतक जमाकर उन्‍होंने बता दिया कि उम्र के साथ साथ वह दिन ब दिन सॉलिड होते जा रहे है। जहां त‍क बात उनको फेवरेट मानने वालों की है तो वह सूची सेंसेक्‍स की तरह उपर नीचे नहीं होती रहती। वह तो महंगाई डायन जैसी है जो बस तेजी से बढ़ती ही जा रही है। ट्विटर पर थोड़े ही समय में प्रशंसकों के मामले में वह शाहरूख खान और प्रियंका चोपड़ा के करीब पहुंच चुके है। यह माइक्रो ब्‍लागिंग वेबसाइट उनकी लोकप्रियता का एक छोटा नमूना भर है।



चिन की खासियत है कि आलोचकों के फेंके पत्‍थरों को वह हथियार बनाकर हमला करने में विश्‍वास नहीं करते। वह इन पत्‍थरों को माइल स्‍टोन में बदल देते है। दरअसल सचिन सचिन है उनके जैसा दूजा नहीं। एक अरब से ज्‍यादा आबादी वाले इस मुल्‍क में वह एकमात्र ऐसे शख्‍स है जो एक साथ सबके चेहरे पर खुशियां ला सकते है। यही वजह है कि जब सचिन को चोट लगती है तो पूरा देश उस दर्द को महसूस करता है। सचिन यदि शतक के नजदीक होतो क्रिकेट प्रेमी उनसे ज्‍यादा तनाव महसूस करता है। पिछले 21 साल से वह हर क्रिकेट प्रेमी के दिल में धड़क रहे है।



याद कीजिए 26 नवंबर 2008 की वह काली रात। मुंबई को समंदर के रास्‍ते आए आतंकियों ने दहला दिया था। भारत में वन डे श्रृंखला में बुरी तरह शिकस्‍त खा चुकी इंग्‍लैंड टीम हमले के बाद दौरा छोड़कर स्‍वदेश लौट गई थी। हालात सुधरने के बाद इंग्‍लैंड टीम वापस भारत लौटी और चेन्‍नई में पहले ही टेस्‍ट में जीत की दहलीज पर पहुंच गई। 387 रनों के लक्ष्‍य का पीछा करते हुए सचिन ने ऐतिहासिक शतक लगाया और भारत को एक अविश्‍वसनीय जीत दिला दी। सचिन के शतक ने बिखरे बिखरे नजर आ रहे देश को फिर से जोड़ दिया। सचिन की इस पारी ने मुंबई हादसे के बाद जिंदगी को फिर से पटरी लाने में अहम रोल अदा किया।




सचिन उन सैनिकों के दिल में भी बसते है जिन्‍होंने सरहद हो या आतंरिक सुरक्षा हमेशा अपनी जान हथेली पर रखकर देश की एकता और अखंडता को सुरक्षित रखा है। शून्‍य से कई डिग्री नीचे तापमान में हो या फिर रेगिस्‍तान के मुश्किल हालात भारतीय सैनिकों ने हर मोर्चा जीता है। इन सैनिकों में लता मंगेशकर के सुरों की तरह सचिन के बल्‍ले से निकले रन जोश भर देते है। उम्‍मीद की जाना चाहिए की देश के सैनिकों को भी सचिन तेंदुलकर जैसा मजबूत बुलेटप्रूफ जैकेट मिलेगा जो लंबे समय तक बगैर चूके उनकी जिंदगी की सुरक्षा करता रहेगा।