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Saturday, July 24, 2010

एम बोले तो मुरलीधरन

मैं कर सकता हूं नहीं यह मेरा घमंड नहीं विश्‍वास है। विश्‍वास और घमंड में बहुत  कम फर्क है। मैं कर सकता हूं, यह मेरा विश्‍वास है। सिर्फ मैं ही कर सकता हूं यह मेरा घमंड है।
गजनी फिल्‍म के हैविवेट सुपररिच मालिक संजय सिंघानिया का यह डॉयलाग श्रीलंका के जादुई गेंदबाज मुथैया मुरलीधरन पर सौ फीसदी खरा उतरा है। 18 साल का लंबा टेस्‍ट कैरियर 800 विकेट की बुलंदियों को केवल इसी थीम पर छू पाया कि मैं कर सकता हूं यह मेरा विश्‍वास है। आत्‍मविश्‍वास, चुनौतियों से निपटना, खुद के सामने बडा लक्ष्‍य रख उसे हासिल करना और टीम भावना जैसे शब्‍दों से जादुई ऑफ स्पिनर मुथैया मुरलीधरन के कैरियर का खाका खींचा जा सकता है। उनका खेल कैरियर मनोबल बढाने वाली किताब को पढने जैसा है।


बिस्किट बनाने वाले परिवार में जन्‍में मुरलीधरन कभी यह मुकाम पाएंगे किसी ने ख्‍वाब में भी नहीं सोचा होगा। मुरली को बचपन से ही यह अच्‍छे से मालूम था कि बिस्किट तभी कुरकुरा और स्‍वादिष्‍ट तैयार होता है जब वह भट्टी की तेज आंच में तपकर निकलें। बॉलिंग एक्‍शन और शुरूआती असफलताओं के बाद आलोचकों की भट्टी में उनकी खूब सिकाई हुई। आलोचनाओं की आंच से डरे बगैर मुरली की गेंदबाजी निखरती गई।  बालिंग एक्‍शन पर सवाल उठाकर उनके कैरियर को खत्‍म करने की कोशिश भी की गई। मुरलीधरन हर चुनौती से अपनी चिर परिचित मुस्‍कान के साथ विजेता की तरह निकले। 18 साल बाद जब मुरलीधरन ने टेस्‍ट क्रिकेट को विदा कहां तो वह उस मुकाम पर खडे है जहां कोई भी गेंदबाज पहुंच नहीं पाया है।


मुरलीधरन के पास 800 विकेट के शिखर को छूने के लिए भारत के खिलाफ तीन टेस्‍ट मैचों की श्रृंखला थी। दुनिया के इस सर्वश्रेष्‍ठ गेंदबाज ने केवल एक टेस्‍ट के बाद संन्‍यास का ऐलान कर सबको चौंका दिया था, क्‍योंकि उन्‍हें खुद पर विश्‍वास था कि वह एक ही टेस्‍ट में आठ विकेट लेने का माद्दा रखते है। वह भी दुनिया की सर्वेश्रेष्‍ठ बैटिंग लाइन के खिलाफ जिसमें मास्‍टर ब्‍लास्‍टर सचिन तेंदुलकर, द वॉल राहुल द्रविड, नजफगढ का सुल्‍तान वीरेन्‍द्र सहवाग और वेरी वेरी स्‍पेशल लक्ष्‍मण हो। मुरलीधरन ने अपने पूरे कैरियर में खुद के सामने मुश्किल लक्ष्‍य रखे है और उन्‍हें हासिल करने का जज्‍बां भी दिखाया है। यही वजह है कि इस ग्रह पर 800 टेस्‍ट विकेट लेने वाले वह पहले मानव बन गए।


मुरलीधरन केवल श्रीलंका में नहीं भारत में भी खासे लोकप्रिय है। दोनों मुल्‍कों के बीच रिश्‍तें त्रेता युग से रहे है। 20 वीं शताब्‍दी में रेडियो सिलोन और फिर लिट्टे के खिलाफ भारतीय शांति सेना के अभियान ने दोनों देशों को फिर जोडा। राजीव गांधी की हत्‍या के बाद श्रीलंकाई तमिलों के खिलाफ नाराजगी भी हुई, लेकिन 21 वी सदी में श्रीलंकाई तमिल खिलाडी मुथैया मुरलीधरन भारत में सबसे चहेते विदेशी क्रिकेटर हो गए। चेन्‍नई सुपर किंग्‍स के लिए खेलने वाले इस खिलाडी ने रेडियो सिलोन जैसी ही लोकप्रियता भारत में हासिल की। यही वजह है कि भारतीय क्रिकेट प्रेमी चाहते थे कि मुरली 800 विकेट हासिल करें लेकिन ख्‍वाहिश बस इतनी सी थी कि टेस्‍ट में भारत को हार का मुंह न देखना पडे।


दुनिया में सबसे ज्‍यादा टेस्ट और वन डे रन बनाने वाले मास्‍टर ब्‍लास्‍टर सचिन तेंदुलकर की तरह मुरलीधरन भी तेज गेंदबाज बनना चाहते थे। सचिन ने गेंद छोड़ बल्‍ला थामा तो मुरलीधरन ने गति को छोड़कर फिरकी को अपनाया। दोनों का यह निर्णय रिकार्ड बुक के वजन को बढाने वाला सा‍बित हुआ। खास बात यह है कि मुरली का इंटरनेशनल कैरियर में आगाज धमाकेदार नहीं हुआ था। इसके बाद भी मुरली ने हिम्‍मत नहीं हारी। कड़ी मेहनत और लड़ाकू क्षमता की बदौलत वह बरसों से श्रीलंका टीम के आधारस्‍तंभ बने रहें। मुरली केवल एक अच्‍छे क्रिकेटर नहीं बल्कि इंसान भी है। सुनामी ने जब श्रीलंका को बर्बाद कर दिया था उस वक्‍त उन्‍होंने सुनामी पीडितों के पुनर्वास में खासा काम किया था। श्रीलंकाई क्रिकेट प्रेमी मुरली को उसी तरह से पूजता है जिस तरह भारत में सचिन तेंदुलकर को भगवान माना जाता है। 


क्रिकेट की दुनिया में अब तक की सबसे यादगार विदाई मुरलीधरन की ही रही है। डॉन ब्रैडमेन अपनी आखरी पारी में चार रन बनाने से चूक गए थे तो लिटिल मास्‍टर सुनील गावस्‍कर भी आखरी पारी में चार रनों से शतक से चूक गए थे। मुरली इन सबसे परे अपने टेस्‍ट कैरियर की आखरी गेंद पर न केवल विकेट लेने में कामयाब रहे बल्कि उन्‍होंने अपनी टीम को जीत दिलाने में भी अहम रोल अदा किया। कहां ये जाता है कि खेल और खिलाडी के मुकाबले में अंत में जीत खेल की ही होती है लेकिन जुझारू मुरलीधरन ने जब संन्‍यास लिया तो न तो क्रिकेट जीता और नहीं खिलाडी हारा। बल्कि मुकाबला बराबरी पर रहा।

विदाई या आधुनिक भाषा में कहे फेयरवेल। एक ऐसा मौका होता है जब विदा होते व्‍यक्ति की स्‍मृतियों में ताउम्र ताजा रहे ऐसा गिफ्ट दिया जाता है। मुरली ने यह तोहफा 800 विकेट के रूप में खुद ही चुन लिया। इसके साथ ही भारत के खिलाफ जीत हासिल कर उन्‍होंने उल्‍टा अपनी टीम को रिटर्न गिफ्ट ही दिया। हर दिल अजीज और टीम में सबसे लोकप्रिय मुरलीधरन की कमी श्रीलंकाई क्रिकेट को हर वक्‍त खलेगी। मुरली जैसे खिलाडी सदियों में जन्‍म लेते है। मुरली जैसा कोई नहीं। अलविदा मुरली।

Monday, July 19, 2010

टेस्‍ट ऑफ हैदराबादी

भारतीय इतिहास में 17 मार्च की तारीख का कोई खास महत्‍व नहीं रहा है। इतिहास के जानकारों के लिए भी यह तारीख कोई खास मायने नहीं रखती, लेकिन यह तारीख पडोसी मुल्‍क और दुनिया की नयी आर्थिक महाशक्ति बनकर अमेरिका को चुनौती दे रहा चीन कभी भूल नहीं सकता है। तिब्‍बत में 1959 में मार्च की 17 तारीख को ही चीनी शासन के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी उठी थी। इसी दिन दलाई लामा ल्‍हासा छोडकर भारत की सरजमी पर पहुंचे थे। 21 वी सदी में भी चीनी चुनौती को 17 मार्च की तारीख करारा जवाब दे रही है। यह चुनौती आर्थिक, सामरिक या राजनीतिक मोर्चे पर नहीं है बल्कि उस मोर्चे पर है जिस पर अब तक चीन का एकछत्र राज रहा है। यह मोर्चा है बैडमिंटन कोर्ट का जहां दुनिया की कोई भी ताकत उसके दबदबे को खत्‍म नहीं कर पाई है। चीन की दीवार को पहली बार जबर्दस्‍त सेंधमारी की है 17 मार्च को जन्‍मी साइना नेहवाल ने। चीनी रूतबे को पूरी तरह से तोडने से यह हैदराबादी बाला महज एक कदम दूर है।


बिरयानी के लिए मशहूर हैदराबादी खाना बेहद लजीज होता है। कुछ ऐसा ही लाजवाब खेल है 20 साल की साइना नेहवाल का। दुनिया में भारतीय खाने को मशहूर करने में लजीज हैदराबादी व्‍यंजन अहम रहे है, जबकि दुनिया में सबसे ज्‍यादा चाइनीज फूड खाया जाता है। टेस्‍ट ऑफ हैदराबादी ने इन दिनों चीनियों के मुहं का स्‍वाद बिगाडा हुआ है। हैदराबादी डिश जितनी नफासत से बनाई जाती है उतने ही करीने से साइना नेहवाल के खेल को सजा संवरा हुआ है। मंद आंच पर पकाए स्‍वादिष्‍ट भोजन की तरह साइना ने भी सफलता का स्‍वाद कदम दर कदम लेकिन मजबूत बुनियाद पर खडे होकर चखा है। 


हैदराबाद दक्षिण भारत का सबसे बडे शहरों में शुमार है। ग्रेटर हैदराबाद को मंजूरी मिलने के बाद तो यह दिल्‍ली के बाद क्षेत्रफल के लिहाज से देश का दूसरा सबसे बडा शहर बन गया है। पचास लाख से ज्‍यादा आबादी वाले शहर का साइना भी 12 साल पहले हिस्‍सा बन गई थी।  लाखों लोगों की भीड में खोने की बजाए साइना यहां अपनी अलग पहचान बनाने आई थी। यह शहर 15 वीं शताब्‍दी के आसपास अस्तित्‍व में आया था उस वक्‍त इसकी पहचान भाग्‍य नगर के रूप में थी। साइना के लिए भी यह शहर भाग्‍य नगर साबित हुआ। वैज्ञानिक पिता के साथ आठ साल की उम्र में हरियाणा के हिसार से हैदराबाद आई साइना की इस शहर ने पूरी जिंदगी ही बदल गई। इस उम्र में जब बच्चियां घर घर खेलती है, साइना 25 किलोमीटर का सफर केवल बैडमिंटन एकेडमी तक पहुंचने के लिए करती थी। वह 24 घंटे के दिन का कभी भी न खत्‍म होने वाला दौर था। इसी प्रेक्टिस की वजह है कि आज सफलता अर्जित करने का दौर भी कभी न रूकने वाला साबित हो रहा है।



बीस साल की साइना शाहरूख खान की जबर्दस्‍त फैन है। शाहरूख का बॉलीवुड का सफर और साइना की जिंदगी का सफर लगभग साथ साथ ही शुरू हुआ है। दोनों ने ही मेहनत और खुद पर आत्‍मविश्‍वास के दम में सफलता हासिल की। हालांकि साइना को अपने पसंदीदा हीरो की तरह हारकर जीतने वाला बाजीगर वाला तमगा पसंद नहीं है। वह जब कोर्ट में होती है तो जीत ही उसका एकमेव लक्ष्‍य होता है। आक्रमक खेल खेलकर वह विरोधी पर हावी हो जाती है। विरोधी समझ पाता इसके पहले साइना अपनी चिर परिचित मुस्‍कान लिए मैच जीतकर हैंड शेक करने नेट पर पहुंच जाती है। यदि विरोधी टक्‍कर दे फिर भी दमखम से वह शिकस्‍त देने का माद्दा रखती है।


खेल प्रेमी उनसे ओलम्पिक और वर्ल्‍ड चैम्पियनशिप में मेडल सहित उम्‍मीदों की लंबी फेहरिस्‍त लिए हुए है। इन सबके बीच खेल प्रेमी का ध्‍यान साइना के खातें में दर्ज एक बडी उपलब्धि पर नहीं जाता। आईपीएल में साइना को डेक्‍कन चार्जेस की टीम ने अपना ब्रांड एम्‍बेसेडर बनाया। दूसरी टीमों ने कैटरीना कैफ, शिल्‍पा शेट्टी, दीपिका पादुकोण जैसी हसीन बॉलीवुड तारिकाओं को यह जवाबदारी सौपी थी, लेकिन वेरी वेरी स्‍पेशल लक्ष्‍मण वाली टीम का चेहरा यह बैंडमिंटन खिलाडी बनी। क्रिकेट को धर्म और बॉलीवुड अदाकारा को अपना सब कुछ मानने वाले इस देश में साइना के लिए इससे बडी उपलब्धि और क्‍या हो सकती है। 



पूरे देश में मॉनसून सक्रिय है और साइना ने आसमां से बरस रही नेमत के बीच दुनिया में नंबर दो की पोजीशन हासिल की है। साइना का खेल भी बारिश की रिमझिम फुहारों सा है जिसका पानी जमीन में रिसकर धरती की आत्‍मा को तृप्‍त करता है। बारिश के साथ हर किसी के जीवन की सुखद यादे जुडी होती है, उम्‍मीद की जाना चाहिए की साइना के जीवन में यह मॉनसून उपलब्‍धियों की बारिश करें। आमीन।

Wednesday, July 14, 2010

द अलकेमिस्‍ट

ब्राजील के जाने माने लेखक पाओलो कोएले की मशूहर कृति है द अलकेमिस्‍ट। इस उपन्‍यास का मुख्‍य किरदार है स्‍पेन के दूरस्‍थ अंचल का गडरिया सेंटियागो है। यह एक ऐसे गड‍रिये की कहानी है जो मुश्किलों को फुटबॉल की तरह ठोकर मारकर दुनिया फतह करने निकला है। द अलकेमिस्‍ट के सेंटियागो की कहानी परी कथा सी लगती है। कहानी होने के बावजूद वह जिंदगी के करीब होते हुए असली सी लगती है। सेंटियागो के मुल्‍क स्‍पेन की वर्ल्‍ड कप फुटबॉल में सफलता भी इस गडरिये से मिलती जुलती है। स्‍पेन की टीम उस घमासान में विजयी हुई है जिस पर छह अरब लोगों की निगाहें लगी हुई थी और 214 मुल्‍क इसे पाने की होड में शामिल थे। आकंडों की कुछ ऐसी जादूगरी द अलकेमिस्‍ट के साथ भी जुडी है। 55 भाषाओं में किताब का अनुवाद किया । 150 से ज्‍यादा देशों में इस किताब ने बिक्री के नये रिकार्ड रचे और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में जगह पाई।


स्‍पेन की वर्ल्‍ड कप यात्रा भी द अलकेमिस्‍ट को पढने और इस किताब के वर्ल्‍ड रिकॉर्ड बनाने की यात्रा जैसे ही है। यह किताब 1988 में पहली बार पुर्तगाली भाषा में सामने आई थी। इसी के बाद धीरे धीरे यह किताब पूरी दुनिया पर छा गई थी। सेंटियागो के दुनिया में सामने आने के 22 साल बाद स्‍पेन ने ठोकर से दुनिया को फतह की उसकी कडी भी पुतर्गाल से जुडती थी। पडोसी मुल्‍क के‍ खिलाफ प्री क्‍वार्टर फायनल में 1-0 से मिली जीत के बाद ही स्‍पेन को खिताब के दावेदारों में शुमार किया गया। सेंटियागो की तरह इस वर्ल्‍ड कप में स्‍पेन ने तमाम विपरीत हालात होने के बावजूद हौंसला नहीं खोया। यह टीम एक एक कर सारी बाधाओं दूर करती चली गई। बिलकुल ही कुछ ऐसा जैसे द अलकेमिस्‍ट के हाथ में आने के बाद सारी बाधाओं को दूर कर उसे एक बार में ही पूरा पढ डालने का मन करता है। यह यूरोपीयन टीम शुरूआती झटके के बाद यह टीम खिताब की दौड में टॉप गियर में दौडने लगी थी।

द अलकेमिस्‍ट में पाओलो कोएले लिखते है कि हमें अपने दिमाग से नकारात्मक विचारों की सफाई करते रहना चाहिए। स्‍पेन ने भी वर्ल्‍ड कप में भी यही किया। स्विट्जरलैंड के खिलाफ वर्ल्‍ड कप के अपने पहले ही मुकाबले में स्‍पेन को हार का मुंह देखना पडा था। स्‍पेन की हार को वर्ल्‍ड कप का सबसे बडा उलेटफेर बताया गया। इसके साथ ही फुटबॉल के स्‍वयंभू जानकारों ने वर्ल्‍ड कप से स्‍पेन की छुट्टी लगभग तय कर दी थी। स्‍पेनिश टीम ने ऐसे मोड पर हार के नकारात्‍मक विचारों को पीछे छोड जोरदार तरीके से वापसी की। पहले होंडूरास को शिकस्‍त देकर उम्‍मीदें कायम की और फिर चिली की चुनौती को एक जोरदार मुकाबले में शिकस्‍त देकर इस टीम ने नॉक आउट दौर में अपनी जगह बनाई थी।

सेंटियागो के माध्‍यम से किताब यह संदेश भी देती है जब तकदीर हमारा साथ दे रही हो तो हमें उसका फायदा उठाना चाहिए। हमें भी उसकी उतनी ही मदद करनी चाहिए , जितनी वह हमारी कर रहा है। स्‍पेन की खिताबी जीत में भी इसी संदेश के पीछे छुपी हुई है। इस वर्ल्‍ड कप में पांच बार की चैंपियन ब्राजील और अर्जेंटीना को खिताब का सशक्‍त दावेदार माना जा रहा था। माइकल बलाक की गैरमौजूदगी के बावजूद पहले मुका‍बले में धमाकेदार खेल के बाद जर्मनी की चुनौती को भी गंभीरता से लिया जा रहा था। इन सबके बीच यूरो कप चैंपियन स्‍पेन का दावा थोडा कमजोर नजर आ रहा था। स्‍पेन पर किस्‍मत की ऐसी मेहरबानी रही कि इन तीनों टीमें उसके आडे आए बगैर ही घर लौट गई। वर्ल्‍ड कप 2010 की चैंपियन इस टीम ने तकदीर की मेहरबानी में अपनी मेहनत जोडकर वह कर दिखाया जो अब तक वर्ल्‍ड कप फुटबॉल के इतिहास में नहीं हुआ।

यह वर्ल्‍ड कप मैसी, काका, रोनाल्‍डो और रूनी जैसे बडे खिलाडियों की चमक के साथ शुरू हुआ था। इनकी चकाचौंध के आगे बाकी किसी खिलाडियों पर खेल प्रेमी की न तो निगाहें थी और नहीं उम्‍मीदें जुडी हुई थी। स्‍पेन के खिलाडियों में डेविड विला ही खेल प्रेमियों की फेवरेट लिस्‍ट में शामिल था। बाकी खिलाडियों को बडे बडे दिग्‍गजों की मौजूदगी के चलते नजरअंदाज कर दिया गया था। यहां द अलकेमिस्‍ट के सेंटियागो की बात फिर की जाए तो पता चलता है कि उसकी खुशी का राज़ यह है कि दुनिया की तमाम चमकती चीजों को देखें ज़रूर , लेकिन अपने पास मौजूद चीजों को न भूलें। स्‍पेन भी इन नामी खिलाडियों की चकाचौंध में अपने उम्‍मीद के दिए को जलाए रखा। बजाए दुश्‍मन की ताकत से डरने से अपने हथियारों की धार को यह टीम पैना करती गई। जैसे जैसे द अलकेमिस्‍ट एक मुल्‍क से दूसरे मुल्‍क पहुंची उसकी लोकप्रियता उतनी ही तेजी से बढती गई। स्‍पेन का विजयी रथ भी पुतर्गाल से आगे बढा उसके साथ ही खिताब की दावेदारों में इस टीम का ग्राफ बढता ही गया।

80 साल से स्‍पेन के खिताब का सूखा खत्‍म हुआ तो अंत में भी सेंटियागो की तरह ही रहा। उपन्‍यास के अंत में सेंटियागो को अपने कदमों तले खजाना मिलता है। स्‍पेन को भी जोहांसबर्ग के सॉकर सिटी में पांव से ही सोना हासिल हुआ। आंद्रेस इनिस्ता के लेफ्ट फुटर ने 116 मिनिट में स्‍पेन के इस ख्‍वाब को सच कर दिया जो हर चार साल में टूट कर बिखर जाता था। 13 वर्ल्‍ड कप में शामिल होने के बाद स्‍पेनिश खिलाडी वर्ल्‍ड कप की ट्राफी को चूमने में कामयाब रहे। सेंटियागो पूरी दुनिया का चहेता है और वर्ल्‍ड कप चैंपियन बनने के बाद स्‍पेन भी।

Thursday, July 8, 2010

मैं नहीं हूं ना

मैं हूं ना फिल्‍म के हीरो शाहरूख खान के पास हर मर्ज की दवा होती है। फिल्‍म के हीरोइन की जान बचाना हो या फिर सुष्मिता सेन को इजहार ए मोहब्‍बत करना हो या फिर गुल हुई बत्‍ती की खामी को दूर करना हो। मैं हूं ना कहते हुए शाहरूख खान उस मास्‍टर चाबी की तरह हर जगह पर मौजूद रहते है जो मुसीबतों के ताले को खोल राह को आसान करती है। पिछले तीन वर्ल्ड कप से फ्रांस के लिए शाहरूख खान की भूमिका जिनेदिन जिडान निभा रहे थे। टीम की जरूरत के मुताबिक जिदान हर पोजीशन पर नजर आते थे। टीम की हर छोटी बडी दिक्‍कतों को यह जादूगर चुटकी में सुलझा देता था। फुटबॉल की भाषा में इस मैं हूं ना वाली भूमिका को प्‍ले मेकर कहां जाता है। वर्ल्‍ड कप में गत उपविजेता फ्रांस को प्‍ले मेकर ही भूमिका खली थी जो टीम को एक सूत्र में बांधकर रख सके और हर मुसीबत के वक्‍त कह सके कि मैं हूं ना।

मुख्‍य अभिनेता की गैरमौजूदगी की वजह से सहायक अभिनेताओं के भरोसे अफ्रीका पहुंची फ्रांस की टीम को फुटबॉल के बाक्‍स ऑफिस पर पहले से ही कमजोर आंका जा रहा था। कुछ नयी कुछ पुरानी रील को जोडकर तैयार की गई फिल्‍म की तरह इस टीम में जोडतोड साफ तौर नजर आ रही थी। यही वजह है कि इस टीम में एकजुटता और जीत के जस्‍बें का अभाव साफ झलक रहा था। इस पर कलाकारों के खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने की होड मची हो और कमजोर एडिटिंग होतो फिल्‍म में बिखराव नजर आता है, कुछ ऐसा ही बिखराव व्‍यक्तिगत खेल खेलने की वजह से फ्रांस की टीम में भी नजर आ रहा था।

दरअसल, किसी भी फिल्‍म के लिए अब पहले तीन दिन बेहद महत्‍वपूर्ण होते है। आजकल इन तीन दिनों में फिल्‍म हाउसफुल हुई की उसे हिट मान लिया जाता है। फ्रांस की टीम वर्ल्‍ड कप के बॉक्‍स ऑफिस पर ओपनिंग होते ही दम तोड दिया। उरूग्‍वे के खिलाफ फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो ने ही इस टीम पर फ्लॉप का ठप्‍पा लगा दिया था। पहले दिन जिस फिल्‍म ने पानी नहीं मांगा उसके दूसरे सप्‍ताह में प्रवेश करने की उम्‍मीद करना भी बेमानी माना जाता है। बावजूद इसके वितरकों को शनिवार और रविवार को वीक एंड पर फिल्‍म के रिवाइवल की उम्‍मीद बंधी रहती है वैसी ही उम्‍मीद बाकी दो मुकाबलों में गत उपविजेता टीम के समर्थकों को थी। फ्रांसीसी कलाकारों की लचर अदाकारी की वजह से फिल्‍म पिट गई और दूसरे दौर के पहले ही मार्केट से बाहर हो गई।

बडे बैनर कभी फिल्‍म की सफलता का पैमाना नहीं होता। बडा बैनर और नये कलाकार कई बार फ्लॉप फिल्‍म का फार्मूला बन जाते है। कुछ ऐसा ही फ्रांसीसी टीम के साथ हुआ। आपसी विवाद और विवादास्‍पद तरीके से आयरलैंड के खिलाफ प्‍ले ऑफ मुका‍बले में थियरे हेनरी के हेंडगोल यानि की हाथ से किए गोल की वजह से अंतिम दौर में फ्रांस की टीम वर्ल्‍ड कप का टिकिट कटा पाई थी। वितरक नहीं मिलने की वजह से जिस तरह फिल्‍म रिलीज होने में देरी हो जाती है उसी तरह फ्रांस की टीम ने किसी तरह गिरते पडते वर्ल्‍ड कप के क्‍वालिफाई किया था। फिल्‍म को रिलीज के लिए अंतिम समय तक संघर्ष करना पडे उससे सफलता की उम्‍मीद भी क्‍या की जा सकती है।

बाक्‍स ऑफिस पर जब कोई फिल्‍म रिलीज होती है तो सफलता का पैमान जीरो से शुरू होता है। पुरानी सफल असफल‍ फिल्‍मों का खाता जीरो हो जाता है। फिल्‍मों की तरह फुटबॉल में भी इतिहास का सेविंग अकाउंट काम नहीं आता है। मैं हूं ना वाले शाहरूख खान जब डॉन बने तो 11 मुल्‍कों की पुलिस को उनका नहीं बल्कि उन्‍हें दर्शकों का इंतजार करना पडा। पिछले तीन वर्ल्‍ड कप में फ्रांस ने एक बार खिताब पर कब्‍जा जमाया था तो पिछली बार वह खिताब से एक कदम दूर रह गया था, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह गौरवशाली इतिहास किसी काम नहीं आया। फुटबॉल के सुपरहिट मुकाबले में यह टीम सुपर फ्लाप हुई क्‍योंकि मैं नहीं हूं ना।